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________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५११ वाक्य निम्न प्रकार से पाया जाता है, जो इस विषय में अपना खास महत्त्व रखता है य एष षड्जीव निकाय विस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः। अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः॥ १३॥ "इसमें बतलाया है कि "हे वीरजिन! यह जो षट् प्रकार के जीवों के निकायों (समूहों) का विस्तार है और जिसका मार्ग दूसरों के अनुभव में नहीं आया, वह आपके द्वारा उदित हुआ, बतलाया गया अथवा प्रकाश में लाया गया है। इसी से जो सर्वज्ञ की परीक्षा करने में समर्थ हैं, वे (आपको सर्वज्ञ जानकर) प्रसन्नता के उदयरूप उत्सव के साथ आप में स्थित हुए हैं, बड़े प्रसन्नचित्त से आपके आश्रय में प्राप्त हुए और आपके भक्त बने हैं।" वे समर्थ-सर्वज्ञ-परीक्षक कौन हैं, जिनका यहाँ उल्लेख है और जो आप्तप्रभु वीरजिनेन्द्र की सर्वज्ञरूप में परीक्षा करने के अनन्तर उनके सुदृढ़ भक्त बने हैं? वे हैं स्वामी समन्तभद्र, जिन्होंने आप्तमीमांसा द्वारा सबसे पहले सर्वज्ञ की परीक्षा की है, जो परीक्षा के अनन्तर वीर की स्तुतिरूप में युक्त्यनुशासन स्तोत्र के रचने में प्रवृत्त हुए हैं९ और जो स्वयम्भूस्तोत्र के निम्न पद्यों में सर्वज्ञ का उल्लेख करते हुए उसमें अपनी स्थिति एवं भक्ति को “त्वयि सुप्रसन्नमनसाः स्थिता वयम्" इस वाक्य के द्वारा स्वयं व्यक्त करते हैं, जो कि "त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः" इस वाक्य का स्पष्ट मूलाधार जान पड़ता है बहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाऽर्थकृत्। नाथ! युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ॥ १२९॥ अत एव ते बुध-नुतस्य चरित-गुणमद्भुतोदयम्। न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसा स्थिता वयम्॥ १३०॥ ४८. अकलङ्कदेव ने भी 'अष्टशती' भाष्य में आप्तमीमांसा को "सर्वज्ञविशेषपरीक्षा" लिखा है और वादिराजसूरि ने 'पार्श्वनाथचरित' में यह प्रतिपादित किया है कि उसी देवागम (आप्तमीमांसा) के द्वारा स्वामी (समन्तभद्र) ने आज भी सर्वज्ञ को प्रदर्शित कर रक्खा स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य न विस्मयावहम्। देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते॥ ४९. युक्त्यनुशासन की प्रथमकारिका में प्रयुक्त हुए 'अद्य' पद का अर्थ श्रीविद्यानन्द ने टीका में "अस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसमये" दिया है और उसके द्वारा आप्तमीमांसा के बाद युक्त्यनुशासन की रचना को सूचित किया है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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