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________________ ५१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ किया जा चुका है। पूज्यपाद इस समय से पहले गङ्गवंशी राजा अविनीत (ई० सन् ४३०-४८२) तथा उसके उत्तराधिकारी दुर्विनीत के समय में हुए हैं और उनके एक शिष्य वज्रनन्दी ने विक्रम संवत् ५२६ में द्राविडसंघ की स्थापना की है, जिसका उल्लेख देवसेनसूरि के दर्शनसार (वि० सं० ९९०) ग्रन्थ में मिलता है। अतः सन्मतिकार सिद्धसेन पूज्यपाद के उत्तरवर्ती हैं, पूज्यपाद के उत्तरवर्ती होने से समन्तभद्र के भी उत्तरवर्ती हैं, ऐसा सिद्ध होता है। और इसलिये समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र तथा आप्तमीमांसा ( देवागम) नामक दो ग्रन्थों की सिद्धसेनीय सन्मतिसूत्र के साथ तुलना करके पं० सुखलाल जी ने दोनों आचार्यों के इन ग्रन्थों में जिस वस्तुगत पुष्कल साम्य की सूचना सन्मति की प्रस्तावना (पृ.६६) में की है, उसके लिये सन्मतिसूत्र को अधिकांश में सामन्तभद्रीय ग्रन्थों के प्रभावादि का आभारी समझना चाहिये। अनेकान्त-शासन के जिस स्वरूपप्रदर्शन एवं गौरव-ख्यापन की ओर समन्तभद्र का प्रधान लक्ष्य रहा है, उसी को सिद्धसेन ने भी अपने ढङ्ग से अपनाया है। साथ ही सामान्य-विशेष-मातृक नयों के सर्वथाअसर्वथा, सापेक्ष-निरपेक्ष और सम्यक्-मिथ्यादि-स्वरूपविषयक समन्तभद्र के मौलिक निर्देशों को भी आत्मसात् किया है। सन्मति का कोई-कोई कथन समन्तभद्र के कथन से कुछ मतभेद अथवा उसमें कुछ वृद्धि या विशेष आयोजन को भी साथ में लिये हुए जान पड़ता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है दव्वं खित्तं कालं भावं पज्जाय-देस-संजोगे। भेदं च पडुच्च समा भावाणं पण्णवणपज्जा॥ ३/६०॥ इस गाथा में बतलाया है कि "पदार्थों की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग और भेद को आश्रित करके ठीक होती है," जब कि समन्तभद्र ने "सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्" जैसे वाक्यों के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टय को ही पदार्थप्ररूपण का मुख्य साधन बतलाया है। इससे यह साफ जाना जाता है कि समन्तभद्र के उक्त चतुष्टय में सिद्धसेन ने बाद को एक दूसरे चतुष्टय की और वृद्धि की है, जिसका पहले से पूर्व के चतुष्टय में ही अन्तर्भाव था।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ.१५२-१५४)। ७.४. प्रथम द्वात्रिंशिका में समन्तभद्र का प्रचुर अनुकरण "रही द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन की बात, पहली द्वात्रिंशिका में एक उल्लेख ४७. सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वजणंदी पाहुडवेदी महासत्तो॥ २४॥ पंचसए छव्वीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो॥ २५॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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