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________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०९ नाम का शास्त्रलक्षणवाला पूरा पद्य न्यायावतार में उद्धृत है, जिसकी रत्नकरण्ड में स्वाभाविकी और न्यायावतार में उद्धरण जैसी स्थिति को खूब खोलकर अनेक युक्तियों के साथ अन्यत्र दर्शाया जा चुका है५ उसके प्रक्षिप्त होने की कल्पना-जैसी बात भी अब नहीं रही, क्योंकि एक तो न्यायावतार का समय अधिक दूर का न रहकर टीकाकार सिद्धर्षि के निकट पहुँच गया है, दूसरे उसमें अन्य कुछ वाक्य भी समर्थनादि के रूप में उद्धृत पाये जाते हैं। जैसे "साध्याविनाभुवो हेतोः" जैसे वाक्य में हेतु का लक्षण आ जाने पर भी "अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्" इस वाक्य में उन पात्रस्वामी के हेतुलक्षण को उद्धृत किया गया है, जो समन्तभद्र के देवागम से प्रभावित होकर जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। इसी तरह "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्" इत्यादि आठवें पद्य में शाब्द (आगम) प्रमाण का लक्षण आ जाने पर भी अगले पद्य में समन्तभद्र का "आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्" इत्यादि शास्त्र का लक्षण समर्थनादि के रूप में उद्धृत हुआ समझना चाहिये। ७.३. न्यायावतार में समन्तभद्र का अनुकरण "इसके सिवाय, न्यायावतार पर समन्तभद्र के देवागम (आप्तमीमांसा) का भी स्पष्ट प्रभाव है, जैसा कि दोनों ग्रन्थों में प्रमाण के अनन्तर पाये जाने वाले निम्न वाक्यों की तुलना पर से जाना जाता हैदेवागम- उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेषस्याऽऽदान-हान-धीः। पूर्वा (वं) वाऽज्ञान-नाशो वा सर्वस्याऽस्य स्वगोचरे॥ १०२॥ न्याया.- प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञान-विनिवर्तनम्। केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्याऽऽदान-हान धीः॥ २८॥ "ऐसी स्थिति में व्याकरणादि के कर्ता पूज्यपाद और न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन दोनों ही स्वामी समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं, इसमें संदेह के लिये कोई स्थान नहीं है। सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन चूँकि नियुक्तिकार एवं नैमित्तिक भद्रबाहु के बाद हुए हैं, उन्होंने भद्रबाहु के द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवाद का खण्डन किया है, और इन भद्रबाहु का समय विक्रम की छठी शताब्दी का प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, यही समय सन्मतिकार सिद्धसेन के समय की पूर्वसीमा है, जैसा कि ऊपर सिद्ध ४५. देखिए , 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास)/पृ. १२६-१३१ तथा अनेकान्त / वर्ष ९/किरण १ से ४ में प्रकाशित 'रत्नकरण्ड के कर्तृत्वविषय में मेरा विचार और निर्णय' नामक लेख / पृ. १०२-१०४। (प्रस्तुत अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में उद्धृत)। ४६. यहाँ 'उपेक्षा' के साथ सुखकी वृद्धि की गई है, जिसका अज्ञाननिवृत्ति तथा उपेक्षा (रागादिक की निवृत्तिरूप अनासक्ति) के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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