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________________ ५०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ जैनेन्द्र व्याकरण का उक्त सूत्र तो उपस्थित करते हैं, परन्तु उसी व्याकरण के दूसरे समकक्ष सूत्र "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" को देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं, उसके प्रति गजनिमीलन जैसा व्यवहार करते हैं, और ज्ञानबिन्दु की परिचयात्मक प्रस्तावना (पृ.५५) में बिना किसी हेतु के ही यहाँ तक लिखने का साहस करते हैं कि "पूज्यपाद के उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र" ने अमुक उल्लेख किया! साथ ही, इस बात को भी भुला जाते हैं कि सन्मति की प्रस्तावना में वे स्वयं पूज्यपाद को समन्तभद्र का उत्तरवर्ती बतला आए हैं और यह लिख आए हैं कि 'स्तुतिकाररूप से प्रसिद्ध इन दोनों जैनाचार्यों का उल्लेख पूज्यपाद ने अपने व्याकरण के उक्त सूत्रों में किया है, उनका कोई भी प्रकार का प्रभाव पूज्यपाद की कृतियों पर होना चाहिये।' मालूम नहीं फिर उनके इस साहसिक कृत्य का क्या रहस्य है! और किस अभिनिवेश के वशवर्ती होकर उन्होंने अब यों ही चलती कलम से समन्तभद्र को पूज्यपाद का उत्तरवर्ती कह डाला है!! इसे अथवा इसके औचित्य को वे ही स्वयं समझ सकते हैं। दूसरे विद्वान् तो इसमें कोई औचित्य एवं न्याय नहीं देखते कि एक ही व्याकरण ग्रन्थ में उल्लेखित दो विद्वानों में से एक को उस ग्रन्थकार का पर्ववर्ती और दसरे को उत्तरवर्ती बतलाया जाय और वह भी बिना किसी युक्ति के। इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलाल जी की बहुत पहले से यह धारणा बनी हुई है कि सिद्धसेन समन्तभद्र के पूर्ववर्ती हैं और वे जैसे-तैसे उसे प्रकट करने के लिए कोई भी अवसर चूकते नहीं हैं। हो सकता है कि उसी की धुन में उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरण का ही एक प्रकार है, अन्यथा वैसा कहने के लिये कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है।" (पु.जै. वा.सू./प्रस्ता./ पृ.१५२)। __ "पूज्यपाद समन्तभद्र के पूर्ववर्ती नहीं, किन्तु उत्तरवर्ती हैं, यह बात जैनेन्द्रव्याकरण के उक्त "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" सूत्र से ही नहीं, किन्तु श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों आदि से भी भले प्रकार जानी जाती है।३ पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का स्पष्ट प्रभाव है, इसे 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव' नामक लेख में स्पष्ट करके बतलाया जा चुका है। समन्तभद्र के रत्नकरण्ड का 'आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यम्' ४३. देखिए , श्रवणबेलगोल-शिलालेख नं. ४० (६४), १०८ (२५८), 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ. १४१-१४३, तथा 'जैनजगत' वर्ष ९/अङ्क १५-१६ में प्रकाशित 'समन्तभद्र का समय और डॉ. के. बी. पाठक' शीर्षक लेख / पृ. १८-२३, अथवा 'दि एन्नल्स ऑफ दि भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना / वाल्यूम १५/ पार्ट १-२ में प्रकाशित Samantabhadra's date and Dr. K. B. Pathak पृ.८१-८८। (पु.जै. वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १५२-१५३)। ४४. देखिए, अनेकान्त / वर्ष ५/ नवम्बर-दिसम्बर १९४३ / किरण १०-११ / पृ. ३४५-३५२। (प्रस्तुत अध्याय के तृतीय प्रकरण में उद्धृत)। susulinasiksila Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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