SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०७ पूर्ववर्ती हैं ४२ और इनके युगपवाद - विधायक वाक्य नमूने के तौर पर इस प्रकार हैंजुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दियर - पयास - तावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥ १५९ ॥ नियमसार । " सई भयवं उप्पण्ण - णाण-दरिसी सदेवासुर - माणुसस्स लोगस्स आगदि गदिं चयणोववादं बंधं मोक्खं इडि ट्ठिदिं जुदिं अणुभागं तक्कं कलं मणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि ति ।" (ष. खं. / पु. १३ / ५,५,८२ / पृ.३४६)। "ऐसी हालत में युगपवाद की सर्वप्रथम उत्पत्ति उमास्वाति से बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाङ्मय में इसकी अविकल धारा अतिप्राचीन काल से चली आई है । यह दूसरी बात है कि क्रम तथा अभेद की धाराएँ भी उसमें कुछ बाद को शामिल हो गई हैं, परन्तु विकासक्रम युगपवाद से ही प्रारंभ होता है, जिसकी सूचना विशेषणवती की उक्त गाथाओं ('केई भांति जुगवं ' इत्यादि) से भी मिलती है। दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और पूज्यपाद के ग्रन्थों में क्रमवाद तथा अभेदवाद का कोई ऊहापोह अथवा खण्डन न होना पं० सुखलाल जी को कुछ अखरा है, परन्तु इसमें अखरने की कोई बात नहीं है। जब इन आचार्यों के सामने ये दोनों बाद आए ही नहीं, तब वे इन वादों का ऊहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे? अकलङ्क के सामने जब ये वाद आए, तब उन्होंने उनका खण्डन किया ही है, चुनाँचे पं० सुखलाल जी स्वयं ज्ञानबिन्दु के परिचय में यह स्वीकार करते हैं कि " ऐसा खण्डन हम सबसे पहले अकलङ्क की कृतियों में पाते हैं। " और इसलिये उनसे पूर्व की, कुन्दकुन्द, समन्तभद्र तथा पूज्यपाद की कृतियों में उन वादों की कोई चर्चा का न होना इस बात को और भी साफ तौर पर सूचित करता है कि इन दोनों वादों की प्रादुर्भूति उनके समय के बाद हुई है। सिद्धसेन के सामने ये दोनों वाद थे, दोनों की चर्चा 'सन्मति' में की गई है, अतः ये सिद्धसेन पूज्यपाद के पूर्ववर्ती नहीं हो सकते। पूज्यपाद ने जिन सिद्धसेन का अपने व्याकरण में नामोल्लेख किया है, वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये।" (पु. जै. वा. सू./प्रस्ता पृ. १५१-१५२) । ७.२. पूज्यपादकृत जैनेन्द्रव्याकरण में समन्तभद्र का उल्लेख "यहाँ पर एक खास बात नोट किये जाने के योग्य है और वह यह कि पं० सुखलाल जी सिद्धसेन को पूज्यपाद पूर्ववर्ती सिद्ध करने के लिए पूज्यपादीय ४२. इस पूर्ववर्तित्व का उल्लेख श्रवणबेलगोलादि के शिलालेखों तथा अनेक ग्रन्थप्रशस्तियों में पाया जाता है । (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १५१ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy