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________________ ५०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ तथा अभेदवाद के कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धि में सनातन से चले आये युगपवाद का प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते, बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादों का खण्डन जरूर करते, परन्तु ऐसा नहीं है,३८ और इससे ग्रह मालूम होता है कि राज्यण्द के समय में केवली के उपयोग-विषयक क्रमवाद और अभेदवाद प्रचलित नहीं हुए थे, वे उनके बाद ही सविशेषरूप से घोषित तथा प्रचार को प्राप्त हुए हैं, और इसी से पूज्यपाद के बाद अकलङ्कादिक के साहित्य में उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है। क्रमवाद का प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहु के द्वारा और अभेदवाद का प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्धसेन के द्वारा हुआ है। उन वादों के इस विकासक्रम का समर्थन जिनभद्र की विशेषणवती-गत उन दो गाथाओं ('केई भणंति जुगवं' इत्यादि नम्बर १८४, १८५) से भी होता है, जिनमें युगपत् , क्रम और अभेद इन तीनों वादों के पुरस्कर्ताओं का इसी क्रम से उल्लेख किया गया है और जिन्हें ऊपर (नं.२ में) उद्धृत किया जा चुका है।" (पु. जै. वा. सू./प्रस्ता/पृ. १५०-१५१)। "पं० सुखलाल जी ने नियुक्तिकार भद्रबाहु को प्रथम भद्रबाहु और उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी मान लिया है, ३९ इसी से इन वादों के क्रम-विकास को समझने में उन्हें भ्रान्ति हुई है, और वे यह प्रतिपादन करने में प्रवृत हुए हैं कि पहले क्रमवाद था, युगपवाद बाद को सबसे पहले वाचक उमास्वाति द्वारा जैन वाङ्मय में प्रविष्ट हुआ और फिर उसके बाद अभेदवाद का प्रवेश मुख्यतः सिद्धसेनाचार्य के द्वारा हुआ है। परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम तो युगपद्वाद का प्रतिवाद भद्रबाहु की आवश्यकनियुक्ति के "सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो णत्थि उवओगा" इस वाक्य में पाया जाता है, जो भद्रबाहु को दूसरी शताब्दी का विद्वान् मानने के कारण उमास्वाति के पूर्व का१ ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाता है। दूसरे, श्री कुन्दकुन्दाचार्य के नियमसार जैसे ग्रन्थों और आचार्य भूतबलि के षट्खण्डागम में भी युगपद्वाद का स्पष्ट विधान पाया जाता है। ये दोनों आचार्य उमास्वाति के ३८. "स उपयोगो द्विविधः ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति।---साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमति। तच्छद्मस्थेष क्रमेण वर्तते। निरावरणेष युगपत।" सर्वार्थसिद्धि /२/९। ३९. ज्ञानबिन्दु परिचय/पृ.५/ पादटिप्पण। ४०. "मतिज्ञानादिषु चतुर्पु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत्। सम्भिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /१/३१। ४१. उमास्वातिवाचक को पं. सुखलाल जी ने विक्रम की तीसरी से पाँचवीं शताब्दी के मध्य का विद्वान् बतलाया है। (ज्ञा.वि.परि./ पृ.५४) पु. जै. वा.सू./प्रस्ता./ पृ. १५१ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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