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________________ १८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०, १३ / प्र० १ " वस्त्रधारी साधु को वस्त्र माँगना, सीना, धोना, सुखाना आदि अनेक कार्य करने पड़ते हैं, जिनसे स्वाध्याय और ध्यान में विघ्न होता है, किन्तु वस्त्ररहित साधु इन सबसे . मुक्त रहता है। अतः परिकर्म से मुक्त रहना अचेललिंग का एक अन्य गुण है। 44 'अचेल साधु निर्भय भी रहता है। जिसका चित्त भय से व्याकुल रहता है, वह रत्नत्रय की साधना का उद्यम नहीं कर पाता । सचेल साधु वस्त्रों में उत्पन्न होनेवाले जूँ, लीख आदि सम्मूर्च्छन जीवों की हिंसा से नहीं बच सकता, जब कि अचेल साधु बच जाता है। अतः संसञ्जण - परिहार भी उसका एक गुण है। 44 ' तथा नग्न साधु शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषहों को जीतता है, किन्तु जिसका शरीर वस्त्राच्छादित है, उसे शीतादि की बाधा नहीं होती, अतः उसके लिए परीषहजय संभव नहीं है। "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः " तत्त्वार्थसूत्र (९ / ८) के इस वचनानुसार कर्मनिर्जरा के अभिलाषियों को परीषह सहना आवश्यक है । " इस टीका से स्पष्ट है कि अपराजित सूरि ने श्वेताम्बरसाधु द्वारा गृहीत सचेललिंग से तुलना करते हुए दिगम्बरसाधु द्वारा स्वीकृत अचेललिंग के गुणों का प्ररूपण किया है । सचेललिंग में दोष ही दोष बतलाये हैं और अचेललिंग में गुण ही गुण । सचेललिंग को स्वाध्याय और ध्यान में विघ्नकारक, सम्मूर्च्छन जीवों की हिंसा का हेतु तथा कर्मनिर्जरा में बाधक बतलाया है, और यह स्पष्ट किया है कि वह मोक्ष का मार्ग नहीं है, मोक्ष का मार्ग केवल अचेललिंग है। इस प्रकार जहाँ भगवती आराधना और उसकी टीका में सचेललिंग के मोक्षमार्ग होने का निषेध किया गया है, वहाँ पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उक्त ग्रन्थ में उसका मोक्ष के अपवादमार्ग के रूप में प्रतिपादित होना मान लिया है। इतना उलटा, इतना विपरीत आकलन ! महान् आश्चर्य है। इससे भी महान् आश्चर्य की बात है उनके अनुगामियों द्वारा आँख बन्द कर उनका अनुसरण किया जाना । एक और अचरज की बात है। अपराजित सूरि ने उपर्युक्त व्याख्यान में मुनि के सचेललिंग को कहीं भी अपवादमार्ग नहीं कहा है, किन्तु प्रेमी जी ने उसे अपने मन से अपवादमार्ग नाम दे दिया है। इस प्रकार उन्होंने एक महान् भ्रान्ति के वशीभूत होकर भगवती - आराधना में मुनि के लिए आपवादिक सचेललिंग के विधान का जबरदस्ती आरोपण कर डाला और उसे यापनीयग्रन्थ घोषित कर दिया । १.६. टीका में अचेललिंग से ही मोक्ष का प्रतिपादन अपराजित सूरि ने भगवती आराधना की टीका में सर्वत्र सचेललिंग के मोक्षमार्ग होने का निषेध किया है और एकमात्र अचेललिंग को ही मुक्ति का उपाय प्रतिपादित किया है। उनके निम्नलिखित वचन प्रमाण हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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