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अ०१८ / प्र०५
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०९ में आ० सोमदेव का१४६ आधार है और जिनमंदिर के लिये गाय, जमीन, स्वर्ण
और खेत आदि के देने का उपदेश पाया जाने से४७ यह भट्टारकीय युग की रचना जान पड़ती है। अतः रत्नमाला का समय वि० की ११वीं शताब्दी से पूर्व सिद्ध नहीं होता, जब कि रत्नकरण्डश्रावकाचार और उसके कर्ता के अस्तित्व का समय विक्रम की छठी शताब्दी से पूर्व का ही प्रसिद्ध होता है। जैसा कि नीचे के कुछ प्रमाणों से प्रकट है
"१. वि० की ११ वीं शताब्दी के विद्वान् आ० वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित में रत्नकरण्डश्रावकाचार का स्पष्ट नामोल्लेख किया है,१४८ जिससे प्रकट है कि रत्नकरण्ड वि० की ११वीं शताब्दी (१०८२ वि०) से पूर्व की रचना है और वह शताब्दियों पूर्व रची जा चुकी थी, तभी वह वादिराज के सामने इतनी अधिक प्रसिद्ध
और महत्त्वपूर्ण कृति समझी जाती रही कि आ० वादिराज स्वयं उसे अक्षयसुखावह बतलाते हैं और दिष्टः कह कर उसके आगम होने का संकेत करते हैं। (अनेकान्त/ वर्ष ६ /किरण १२/ पृ. ३८०-८१)।
"२. ११वीं शताब्दी के ही विद्वान् और वादिराज के कुछ समय पूर्ववर्ती आ० प्रभाचन्द्र ने४९ प्रस्तुत ग्रन्थ पर एक ख्यात टीका लिखी है, जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में रत्नकरण्ड के साथ प्रकाशित हो चुकी है और जिससे भी प्रकट है कि यह ग्रन्थ ११वीं सदी से पूर्व का है। श्रीप्रभाचन्द्र ने इस ग्रन्थ को स्वामी समन्तभद्रकृत स्पष्ट लिखा है। यथा
"श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो ---।"
१४६. क- सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः।
यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम्॥ ४८०॥ यशस्तिलकचम्पू। ख-सर्वमेव विधिजैनः प्रमाणं लौकिकः सताम्।
यत्र न व्रतहानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खण्डनम्॥ ६५॥ रत्नमाला। १४७. गोभूमिस्वर्णकच्छादिदानं वसतयेऽर्हताम्।
----------- ॥२८॥ रत्नमाला। १४८. त्यागी स एव योगीन्द्रः येनाऽक्षय्यसुखावहः।
अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः॥ १९॥ १४९. इनका समय पं० महेन्द्रकुमार जी ने ई० ९८० से १०६५ दिया है। (न्यायकुमुदचन्द्र/
द्वितीयभाग की प्रस्तावना)।
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