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________________ ६०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०५ "१. रत्नकरण्ड में शिक्षा-व्रतों के चार भेद बतलाये हैं १ देशावकाशिक, २ सामयिक, ३ प्रोषधोपवास और ४ वैयावृत्य। लेकिन रत्नमाला में देशावकाशिक को छोड़ दिया गया है, यहाँ तक कि उसको किसी भी व्रत में परिगणित नहीं किया और मारणान्तिक सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में गिनाया है। यथा देशावकाशिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा। वैयावृत्त्यं शिक्षा-व्रतानि चत्वारि शिष्टानि॥ ९१। र.क.पा.। ---------------- -------- --------॥ सामायिकं प्रोषधोपवासोऽतिथिसु पूजनम्॥ १७॥ रत्नमाला। मारणान्तिकसल्लेख इत्येवं तच्चतुष्टयम्। ------- ----॥ १८॥ रत्नमाला। "२. रत्नकरण्ड में उत्कृष्ट श्रावक के लिये मुनियों के निवासस्थान वन में जाकर व्रतों को ग्रहण करने का विधान किया गया है, जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि दिगम्बर मुनि उस समय वन में ही रहा करते थे। जब कि रत्नमाला में मुनियों के लिये वन में रहना मना किया गया है। जिनमंदिर तथा ग्रामादि में ही रहने का स्पष्ट आदेश दिया गया है। यथा गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य। भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः॥ १४७॥ र.क.श्रा.। कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः। स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः॥ २२॥ रत्नमाला। "इन बातों से मालूम होता है कि रत्नमाला रत्नकरण्डश्रावकाचार के कर्ता के शिष्य की कृति कहलाने योग्य नहीं है। साथ ही यह भी मालूम होता है कि रत्नमाला की रचना उस समय हुई है, जब मुनियों में काफी शिथिलाचार आ गया था और इसी से पं० आशाधर जी जैसे विद्वानों को 'पंडितैर्धष्टचारित्रैः वठरैश्च तपोधनैः। शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम्॥' कहना पड़ा। पर रत्नकरण्ड पर से रत्नकरण्डकार के समय में ऐसे किसी भी तरह के शिथिलाचार की प्रवृत्ति का संकेत नहीं मिलता और इसलिये वह रत्नमाला से बहुत प्राचीन रचना है। रत्नमाला का सूक्ष्म अध्ययन करने से यह भी ज्ञात होता है कि यह यशस्तिलकचम्पू के कर्ता सोमदेव से, जिन्होंने अपने यशस्तिलक की समाप्ति शक सं० ८८१ (वि०१०१६) में की है और इस तरह जो वि० की ११वीं शताब्दी के विद्वान् हैं, बहुत बाद की रचना है, क्योंकि रत्नमाला Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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