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________________ अ०१८ / प्र०५ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०७ श्रावकों के अध्ययन पर कोई नियंत्रण नहीं लगाया गया, किन्तु इसके विपरीत--।" (क्षेत्रस्पर्शन/ प्रस्ता./पृ.१२)। (देखिये, इसी अध्याय में पादटिप्पणी क्र. १४२.१)। __ "किन्तु अब मालूम होता है कि प्रो० सा० ने अपनी वह पूर्व मान्यता छोड़ दी है और इसीलिये रत्नकरण्ड को स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं मान रहे हैं। अस्तु। "प्रो० साहब ने अपने निबन्ध की उक्त पंक्तियों में रत्नकरण्डश्रावकाचार को स्वामी समन्तभद्रकृत सिद्ध करनेवाले जिन प्रस्तुत प्रमाणों की ओर संकेत किया है, वे प्रमाण वे हैं, जिन्हें परीक्षा द्वारा अनेक ग्रन्थों को जाली सिद्ध करनेवाले मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोर जी ने माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावना में विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है।४५ मैं चाहता था कि उन प्रमाणों को यहाँ उद्धृत करके अपने पाठकों को यह बतलाऊँ कि वे कितने प्रबल तथा पुष्ट प्रमाण हैं, परन्तु वर्तमान सरकारी आर्डिनेंस के कारण पत्रों का कलेवर इतना कृश हो गया है कि उसमें अधिक लम्बे लेखों के लिये स्थान नहीं रहा और इसलिये मुझे अपने उक्त विचार को छोड़ना पड़ा, फिर भी मैं यहाँ इतना जरूर प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो० साहब ने अपने निबन्ध में उक्त प्रमाणों का कोई खण्डन नहीं किया-वे उन्हें मानकर ही आगे चले हैं, जैसा कि "उन सबके होते हुए भी मेरा अब यह दृढ़ मत हो गया है" इन शब्दों में प्रकट है। जान पड़ता है मुख्तार साहब ने अपने प्रमाणों को प्रस्तुत कर देने के बाद जो यह लिखा था कि "ग्रन्थ (रत्नकरण्ड श्रा०) भर में ऐसा कोई कथन भी नहीं है, जो आचार्य महोदय के दूसरे किसी ग्रन्थ के विरुद्ध पड़ता हो" इसे लेकर ही प्रो० साहब ने दोष के स्वरूप में विरोधप्रदर्शन का कुछ यत्न किया है, जो ठीक नहीं हैं और जिसका स्पष्टीकरण आगे चल कर किया जायगा।" (अनेकान्त / वर्ष ६/किरण १२ / पृ.३७९-८०)। "यहाँ सबसे पहले रत्नमाला के सम्बन्ध में विचार कर लेना उचित जान पड़ता है। यह रत्नमाला रत्नकरण्डश्रावकाचार-निर्माता के शिष्य की तो कृति मालूम नहीं होती, क्योंकि दोनों ही कृतियों में शताब्दियों का अन्तराल जान पड़ता है, जिससे दोनों के कर्ताओं में साक्षाद् गुरु-शिष्य-सम्बन्ध अत्यन्त दुर्घट ही नहीं, किन्तु असंभव है। साथ ही इसका साहित्य बहुत ही घटिया तथा अक्रम है। इतना ही नहीं, इसमें रत्नकरण्डश्रावकाचार से कितने ही ऐसे सैद्धान्तिक मतभेद भी पाये जाते हैं, जो प्रायः साक्षात् गुरु और शिष्य के बीच में संभव प्रतीत नहीं होते। नमूने के तौर पर यहाँ दो उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं १४५. देखिये, प्रस्तावना पृ.५ से १५ तक। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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