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________________ ६०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०५ के कर्ता स्वामी समन्तभद्र को एक ही व्यक्ति बतलाने की बात पर तो मैं 'अनेकान्त' की गत संयुक्त किरण नं० १०-११ में सप्रमाण विस्तृत विचार करके यह स्पष्ट कर आया हूँ कि नियुक्तिकार भद्रबाहु-द्वितीय और आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र एक व्यक्ति नहीं हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं और वे जुदी दो भिन्न परम्पराओं (श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों) में क्रमशः हुए हैं, स्वामी समन्तभद्र जहाँ दूसरी-तीसरी शताब्दी के विद्वान् हैं, वहाँ नियुक्तिकार भद्रबाहु छठी शताब्दी के विद्वान् हैं। __ "आज मैं प्रो० सा० की एक दूसरी बात को लेता हूँ, जिसमें उन्होंने रत्नकरण्डश्रावकाचार को आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र की कृति स्वीकार न करके दूसरे ही समन्तभद्र की कृति बतलाई है और जिन्हें आपने आचार्य कुन्दकुन्द के उपदेशों का समर्थक तथा रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि का गुरु संभावित किया है, जैसा कि आपके (उपर्युक्त) निबन्ध की निम्न पंक्तियों से प्रकट है "रत्नकरण्डश्रावकाचार को उक्त समन्तभद्र प्रथम (स्वामी समन्तभद्र) की ही रचना सिद्ध करने के लिये जो कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, उन सबके होते हुए भी मेरा अब यह मत दृढ़ हो गया है कि वह उन्हीं ग्रन्थकार की रचना कदापि नहीं हो सकती, जिन्होंने आप्तमीमांसा लिखी थी, क्योंकि उसमें दोष का १४४ जो स्वरूप समझाया गया है वह आप्तमीमांसाकार के अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता। मैं समझता हूँ कि रत्नकरण्ड-श्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्य के उपदेशों के पश्चात् उन्हीं के समर्थन में लिखा गया है। इस ग्रन्थ का कर्ता उस रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि का गुरु भी हो सकता है, जो आराधना के कर्ता शिवभूति या शिवार्य की रचना कदापि नहीं हो सकती।" (अनेकान्त/वर्ष ६/किरण १२/ पृ. ३७९)। "यहाँ मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो० सा० ने आज से कुछ अर्से पहले 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार' शीर्षक लेख में, जो बाद को धवला की चतुर्थ पुस्तक में भी सम्बद्ध किया गया है, रत्नकरण्डश्रावकाचार को स्वामी समन्तभद्रकृत स्वीकार किया है और उसे गृहस्थों के लिये सिद्धान्तग्रन्थों के अध्ययन-विषयक नियंत्रण न करने में प्रधान और पुष्ट प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। यथा "श्रावकाचार का सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार है, जिसे वादिराजसूरि ने, 'अक्षयसुखावह' और प्रभाचन्द्र ने 'अखिल सागारधर्म को प्रकाशित करने वाला सूर्य' कहा है । इस ग्रन्थ में १४४. क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते॥ ६॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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