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________________ अ०१८/प्र०५ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०५ से पूर्ववर्ती हैं तथा प्रस्तुत अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में उद्धृत अपने लेख 'रलकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय' में मुख्तार जी ने यह सिद्ध किया है कि 'आप्तमीमांसा' के कर्ता समन्तभद्र ही 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' के कर्ता हैं। इसकी पुष्टि में मुख्तार जी ने पं० दरबारीलाल जी कोठिया के उस लेख की चर्चा की है, जिसमें उन्होंने अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि रत्नकरण्डश्रावकाचार और रत्नमाला में पर्याप्त सैद्धान्तिक भेद है, जिससे वे क्रमशः गुरु (समन्तभद्र) और शिष्य (शिवकोटि) की रचनाएँ सिद्ध नहीं होती। इसके अतिरिक्त रत्नकरण्डश्रावकाचार में वर्णित आचार की अपेक्षा रत्नमाला में वर्णित आचार भी बहुत शिथिल दिखायी देता है, जिससे रत्नकरण्डश्रावकाचार प्राचीन काल की तथा रत्नमाला उसके बहुत बाद की, लगभग ११वीं शती ई० की रचना सिद्ध होती है। इससे साबित होता है कि 'रत्नकरण्ड' उन समन्तभद्र की रचना नहीं है, जो रत्नमालाकार शिवकोटि के गुरु थे, अपितु आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र की कृति है। (देखिए, प्रस्तुत अध्याय। प्रकरण ४/ शीर्षक ६)। ___ यतः प्रो० हीरालाल जी के अनुसार आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र ईसा की द्वितीय शती (१२२ ई०) में हुए थे और पं० सुखलाल जी संघवी के मतानुसार 'न्यायावतार', 'सन्मतिसूत्र' आदि के कर्ता सिद्धसेन विक्रम की पाँचवीं शताब्दी मे स्थित थे, अतः यह स्वतः सिद्ध होता है कि 'आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यम्' कारिका 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' से ही 'न्यायावतार' में पहुंची है। फलस्वरूप सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन स्वामी समन्तभद्र से उत्तरवर्ती हैं। पं० दरबारीलाल जी कोठिया के उपर्युक्त लेख का शीर्षक है-'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है?' यह 'अनेकान्त' के वर्ष ६/ किरण १२ / जुलाई १९४४ के अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रत्यक्ष प्रमाण के लिए उसका सम्बन्धित अंश नीचे उद्धृत किया जा रहा। . लेख क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है? लेखक : न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया (यहाँ लेख का केवल प्रारंभिक अर्धांश उद्धृत है। पृ. ३७९-३८२) "प्रो० हीरालाल जी जैन एम० ए० ने, 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नाम के निबन्ध में कुछ ऐसी बातों को प्रस्तुत किया है, जो आपत्तिजनक हैं। उनमें से श्वेताम्बर आगमों की दश नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु-द्वितीय और आप्तमीमांसा Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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