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________________ पञ्चम प्रकरण रत्नकरण्ड और रत्नमाला में सैद्धान्तिक एवं कालगत भेद प्रस्तुत अष्टादश अध्याय के प्रथम प्रकरण में पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार का 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामक लेख (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./ पृ. ११९-१६८) उद्धृत किया गया है। उसमें उन्होंने लिखा है कि पं० सुखलाल जी संघवी ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को 'सर्वार्थसिद्धि' के कर्त्ता पूज्यपादस्वामी से पूर्ववर्ती (विक्रम की ५वीं शताब्दी में स्थित) तथा स्वामी समन्तभद्र को पूज्यपाद से उत्तरवर्ती सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। (देखिये, प्रस्तुत अध्याय । प्रकरण १ / शीर्षक ७ एवं ७.२)। किन्तु पं० सुखलाल जी संघवी आदि श्वेताम्बर विद्वान् ‘न्यायावतार' को भी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की कृति मानते हैं, जिसमें आचार्य समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार की 'आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्य म्' कारिका उपलब्ध होती है। इससे सिद्ध होता है कि उक्त सिद्धसेन समन्तभद्र से उत्तरवर्ती हैं। और पूज्यपादस्वामी ने 'जैनेन्द्र-व्याकरण' में चतुष्टयं समन्तभद्रस्य इन शब्दों में समन्तभद्र का उल्लेख किया है। (देखिये, प्रस्तुत अध्याय । प्रकरण १/ शीर्षक ७.२)। इससे पूज्यपाद समन्तभद्र से उत्तरवर्ती ठहरते हैं। किन्तु प्रो० हीरालाल जी जैन ने 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नामक अपने लेख में यह सिद्ध करने का परिश्रम किया है कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' के कर्ता वे समन्तभद्र नहीं हैं, जिन्होंने आप्तमीमांसा की रचना की है, अपितु उनसे बहुत बाद में उत्पन्न हुए एक अन्य समन्तभद्र जो 'रत्नमाला' के कर्ता शिवकोटि के गुरु थे, उसके कर्ता हैं। प्रो० हीरालाल जी ने आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र का समय वीरनिर्वाण संवत् ६४९ (१२२ ई०) माना है। ('जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय'। अन्तिम पैरा क्र.७)। प्रोफेसर सा० की इस उद्भावना को प्रमाणरूप में उद्धृत करते हुए पं० दलसुख मालवणिया ने अपना यह मन्तव्य प्रकट किया है कि 'न्यायावतार' (पं० सुखलाल जी संघवी के अनुसार विक्रम की ५वीं शती) में उपलब्ध 'आप्तोपज्ञमनुल्ल ध्यम्' कारिका 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' (मालवणिया जी के अनुसार विक्रम की ५वीं शती से बहुत बाद में रचित) से गृहीत नहीं है, अपितु 'न्यायावतार' की मौलिक कारिका है। अतः "उसके (रत्नकरण्डश्रावकाचार के) आधार से यह कहना कि सिद्धसेन (सन्मतिसूत्रकार) समन्तभद्र के बाद हुये, युक्तियुक्त नहीं है।" (न्यायावतारवार्तिकवृत्ति/ प्रस्ता./ पृ.१४१)। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने उपर्युक्त 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामक लेख में अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि पूज्यपादस्वामी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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