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________________ अ० १८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०३ उन्हें उत्तर के चक्कर में पड़कर कुछ ध्यान रहा मालूम नहीं होता और वे यहाँ तक लिख गये हैं कि "रत्नकरण्ड की रचना का समय इस ( विद्यानन्दसमय वि० सं० ८७३) के पश्चात् और वादिराज के समय अर्थात् शक सं० ९४७ (वि० सं० १०८२) से पूर्व सिद्ध होता है । इस समयावधि के प्रकाश में रत्नकरण्ड श्रावकाचार और रत्नमाला का रचनाकाल समीप आ जाते हैं और उनके बीच शताब्दियों का अन्तराल नहीं रहता । ' ,१४३ 44 'इस तरह गम्भीर गवेषण और उदार पर्यालोचन के साथ विचार करने पर प्रो० साहब की चारों दलीलें अथवा आपत्तियों में से एक भी इस योग्य नहीं ठहरती, जो रत्नकारण्ड श्रावकचार और आप्तमीमांसा का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करने अथवा दोनों के एककर्तृत्व में कोई बाधा उत्पन्न करने में समर्थ हो सके और इसलिये बाधक प्रमाणों के अभाव एवं साधक प्रमाणों के सद्भाव में यह कहना न्यायप्राप्त है कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार उन्हीं समन्तभद्र आचार्य की कृति है, जो आप्तमीमांसा (देवागम ) के रचयिता हैं । और यही मेरा निर्णय है ।" (जै. सा. इ.वि.प्र./ खं. १ / पृ. ४८२ - ४८३) । पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त प्रमाणों से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' 'आप्तमीमांसा' के रचयिता समन्तभद्र की ही कृति है, विक्रम की ११वीं शती में रचित 'रत्नमाला' के कर्त्ता शिवकोटि के गुरु की नहीं । अतः यदि पं० सुखलाल जी संघवी आदि श्वेताम्बर विद्वान् 'न्यायावतार' (७वीं शती ई०) को सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की कृति मानते हैं, तो उसमें 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' (तीसरी शती ई०) की 'आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यम्' इत्यादि कारिका के उपलब्ध होने से यह कहना कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन स्वामी समन्तभद्र के बाद हुए हैं, सर्वथा युक्तियुक्त है। की चौथी पुस्तक के प्रथम संस्करण में प्रो० हीरालाल जी जैन के द्वारा लिखा गया था। उसके बदले प्रो० हीरालाल जी जैन की भूमिका के साथ उनके द्वारा प्रस्तुत सेठ हीरालाल नेमचंद, सोलापुर का ई. सन् १९१६ में लिखा गया 'श्रीधवल, जयधवल, महाधवल सिद्धान्तग्रन्थ श्रावकों ने पढ़ना चाहिए या नहीं, इस विषय की चर्चा' नामक लेख छपा है । षट्खण्डागम की चौथी पुस्तक के तृतीय संस्करण में प्रो० हीरालाल जी का उक्त लेख क्यों नहीं छापा गया, यह विचारणीय है। प्रमाण के लिए उक्त लेख षट्खण्डागम (पुस्तक ४) के प्रथम संस्करण (सन् १९४१ ) में देखा जा सकता है। संभव है वह द्वितीय संस्करण में भी हो । १४३. अनेकान्त / वर्ष ७ / किरण ५-६ / पृ. ५४ । Jain Education International ❖❖❖ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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