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________________ अ० १८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६३ से निवेदन किया गया, परन्तु हर बार यही उत्तर मिलता रहा कि भट्टारक जी मठ में मौजूद नहीं हैं, बाहर गये हुए हैं। वे अक्सर बाहर ही घूमा करते हैं । और बिना उनकी मौजूदगी के मठ के शास्त्र भण्डार को देखा नहीं जा सकता।" (जै. सा. इ. वि. प्र. / खं.१/ पृ. ४३७-४३८)। निरसन १. आप्तमीमांसा में आप्तदोष के स्वरूप का वर्णन नहीं "ऐसी हालत में रत्नकरण्ड का छठा पद्य अभी तक मेरे विचाराधीन ही चला जाता है। फिलहाल, वर्तमान चर्चा के लिये, मैं उसे मूलग्रन्थ का अंग मानकर ही प्रोफेसर साहब की चारों आपत्तियों पर अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूँ । और वह निम्न प्रकार है "I. रत्नकरण्ड को आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र की कृति न बतलाने में प्रोफेसर साहब की जो सबसे बड़ी दलील है, वह यह है कि रत्नकरण्ड के 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य में दोष का जो स्वरूप समझाया गया है, वह आप्तमीमांसाकार के अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता, अर्थात् आप्तमीमांसाकार का दोष के स्वरूप-विषय में जो अभिमत है, वह रत्नकरण्ड के उपर्युक्त पद्य में वर्णित दोषस्वरूप के साथ मेल नहीं खाता, विरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों ग्रन्थ एक ही आचार्य की कृति नहीं हो सकते। इस दलील को चरितार्थ करने के लिये सबसे पहले यह मालूम होने की जरूरत है कि आप्तमीमांसाकार का दोष के स्वरूप-विषय में क्या अभिमत अथवा अभिप्राय है और उसे प्रोफेसर साहब ने कहाँ से अवगत किया है? मूल आप्तमीमांसा पर से ? आप्तमीमांसा की टीकाओं पर से ? अथवा आप्तमीमांसाकार के दूसरे ग्रन्थों पर से ? और उसके बाद यह देखना होगा कि वह रत्नकरण्ड के 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य के साथ मेल खाता अथवा संगत बैठता है या कि नहीं। " प्रोफेसर साहब ने आप्तमीमांसाकार के द्वारा अभिमत दोष के स्वरूप का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ संकेत ही किया है। उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है कि मूल आप्तमीमांसा में कहीं भी दोष का कोई स्वरूप दिया हुआ नहीं है। 'दोष' शब्द का प्रयोग कुल पाँच कारिकाओं नं० ४, ६, ५६, ६२, ८० में हुआ है, जिनमें से पिछली तीन कारिकाओं में बुद्ध्यसंचरदोष, वृत्तिदोष और प्रतिज्ञा तथा हेतु-दोष का क्रमशः उल्लेख है, आप्तदोष से सम्बन्ध रखनेवाली केवल ४थी तथा ६ठी कारिकाएँ ही हैं और वे दोनों ही 'दोष' के स्वरूपकथन से रिक्त हैं। और इसलिये दोष का अभिमत स्वरूप जानने के लिये आप्तमीमांसा की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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