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५६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र० ४
टीकाओं तथा आप्तमीमांसाकार की दूसरी कृतियों का आश्रय लेना होगा। साथ ही ग्रन्थ के सन्दर्भ अथवा पूर्वापरकथन- सम्बन्ध को भी देखना होगा ।" (जै. सा. इ. वि.प्र./ खं.१/पृ. ४३८-४३९) ।
( टीकाओं का विचार)
२. अष्टसहस्त्री के 'विग्रहादिमहोदय' में भुक्त्युपसर्गाभाव अन्तर्भूत
" प्रोफेसर साहब ने ग्रन्थसन्दर्भ के साथ टीकाओं का आश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीका के आधार पर, जिसमें अकलङ्कदेव की अष्टशती टीका भी शामिल है, यह प्रतिपादित किया है कि 'दोषावरणयोर्हानि:' इस चतुर्थ- कारिका-गत वाक्य और 'स त्वमेवासि निर्दोष:' इस छठी कारिकागत वाक्य में प्रयुक्त 'दोष' शब्द का अभिप्राय उन अज्ञान तथा राग-द्वेषादिक ८७ वृत्तियों से है, जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों से उत्पन्न होती हैं और केवली में उनका अभाव होने पर नष्ट हो जाती हैं ।८८ इस दृष्टि से रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य में उल्लेखित भय, स्मय, राग, द्वेष और मोह ये पाँच दोष तो आपको असङ्गत अथवा विरुद्ध मालूम नहीं पड़ते, शेष क्षुधा, पिपासा, जरा, आतङ्क (रोग), जन्म और अन्तक (मरण), इन छह दोषों को आप असंगत समझते हैं, उन्हें सर्वथा असातावेदनीयादि अघातिया कर्मजन्य मानते हैं और उनका आप्तकेवली में अभाव बतलाने पर अघातिया कर्मों का सत्त्व तथा उदय वर्तमान रहने के कारण सैद्धान्तिक कठिनाई महसूस करते हैं । ९ परन्तु अष्टसहस्री में ही द्वितीया कारिका के अन्तर्गत विग्रहादिमहोदय: १° पद का जो अर्थ शश्वन्निःस्वेदत्वादि किया है और उसे घातिक्षयजः बतलाया है, उस पर प्रो० साहब ने पूरी तौर पर ध्यान दिया मालूम नहीं होता । शश्वन्निःस्वेदत्वादिः पद में उन ३४ अतिशयों तथा ८ प्रातिहार्यों का समावेश है, जो श्रीपूज्यपाद के नित्यं निःस्वेदत्वं इस भक्तिपाठगत अर्हत्स्तोत्र में वर्णित हैं। इन अतिशयों में अर्हत्-स्वयम्भू के देहसम्बन्धी जो १० अतिशय हैं, उन्हें देखते हुए जरा और रोग के लिये कोई स्थान नहीं रहता और भोजन तथा उपसर्ग के अभावरूप (भुक्त्युपसर्गाभावः ) जो दो अतिशय हैं, उनकी उपस्थिति में क्षुधा और पिपासा के लिये कोई अवकाश नहीं मिलता। शेष 'जन्म' का अभिप्राय पुनर्जन्म से और 'मरण' का अभिप्राय अपमृत्यु अथवा उस मरण से है, जिसके अनन्तर दूसरा भव (संसारपर्याय) धारण किया जाता है। घातियाकर्म के क्षय हो जाने पर इन दोनों
८७. 'दोषास्तावदज्ञान - राग-द्वेषादय उक्ताः ।" अष्टसहस्री ६ / ६२ ।
८८. अनेकान्त / वर्ष ७ / किरण ७-८ / पृ. ६२ ।
८९. अनेकान्त / वर्ष ७ / किरण ३-४ / पृ. ३१ ।
९०. “ विग्रहादिमहोदयः शश्वन्निःस्वेदत्वादिः घातिक्षयजः ।”
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