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________________ अ०१८/प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६५ की सम्भावना भी नष्ट हो जाती है। इस तरह घातियाकर्मों का क्षय होने पर क्षुत्पिपासादि शेष छहों दोषों का अभाव होना भी अष्टसहस्री-सम्मत है, ऐसा समझना चाहिए। वसुनन्दिवृत्ति में तो दूसरी कारिका का अर्थ देते हुए , "क्षुत्पिपासाजरारुजाऽपमृत्यवाद्यभावः इत्यर्थः" इस वाक्य के द्वारा क्षुधा-पिपासादि के अभाव को साफ तौर पर विग्रहादिमहोदय के अन्तर्गत किया है, विग्रहादि-महोदय को अमानुषातिशय लिखा है तथा अतिशय को पूर्वावस्था का अतिरेक बतलाया है। और छठी कारिका में प्रयुक्त हुए 'निर्दोष' शब्द के अर्थ में अविद्या-रागादि के साथ क्षुधादि के अभाव को भी सूचित किया है। यथा __ "निर्दोष अविद्यारागदिविरहितः क्षुदादिविरहितो वा अनन्तज्ञानादिसम्बन्धेन इत्यर्थः।" "इस वाक्य में अनन्तज्ञानादि-सम्बन्धेन पद क्षुदादिविरहितः पद के साथ अपनी खास विशेषता एवं महत्त्व रखता है और इस बात को सूचित करता है कि जब आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की आविर्भूति होती है, तब उसके सम्बन्ध से क्षुधादि दोषों का स्वतः अभाव हो जाता है अर्थात् उनका अभाव हो जाना उसका आनुषङ्गिक फल है, उसके लिये वेदनीयकर्म का अभाव-जैसे किसी दूसरे साधन के जुटने-जुटाने की जरूरत नहीं रहती। और यह ठीक ही है, क्योंकि मोहनीयकर्म के साहचर्य अथवा सहाय के बिना वेदनीयकर्म अपना कार्य करने में उसी तरह असमर्थ होता है, जिस तरह ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ ज्ञान वीर्यान्तरायकर्म का अनुकूल क्षयोपशम साथ में न होने से अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता है, अथवा चारों घातिया कर्मों का अभाव हो जाने पर वेदनीयकर्म अपना दुःखोत्पादनादि कार्य करने में उसी प्रकार असमर्थ होता है, जिस प्रकार कि मिट्टी और पानी आदि के बिना बीज अपना अंकुरोत्पादन कार्य करने में असमर्थ होता है। मोहादिक के अभाव में वेदनीय की स्थिति जीवितशरीर-जैसी न रहकर मृतशरीरजैसी हो जाती है, उस में प्राण नहीं रहता अथवा जली रस्सी के समान अपना कार्य करने की शक्ति नहीं रहती। इस विषय के समर्थन में कितने ही शास्त्रीय प्रमाण आप्तस्वरूप, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, श्लोकवार्तिक, आदिपुराण और जयधवला जैसे ग्रन्थों पर से पण्डित दरबारीलाल जी के लेखों में उद्धृत किये गये हैं ९१ जिन्हें यहाँ फिर से उपस्थित करने की जरूरत मालूम नहीं होती। ऐसी स्थिति में क्षुत्पिपासा जैसे दोषों को सर्वथा वेदनीयजन्य नहीं कहा जा सकता, वेदनीयकर्म उन्हें उत्पन्न करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। और कोई भी कार्य किसी एक ही कारण से उत्पन्न नहीं हुआ करता, ९१. अनेकान्त / वर्ष ८/ किरण ४-५ / पृ. १५९-१६१। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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