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________________ ५६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ उपादान कारण के साथ अनेक सहकारी कारणों की भी उसके लिये जरूरत हुआ करती है, उन सबका संयोग नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं हुआ करता । और इसलिये केवली में क्षुधादि का अभाव मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। वेदनीय का सत्त्व और उदय वर्तमान रहते हुए भी आत्मा में अनन्तज्ञान सुखवीर्यादि का सम्बन्ध स्थापित होने से वेदनीयकर्म का पुद्गल - परमाणु- पुञ्ज क्षुधादि दोषों को उत्पन्न करने में उसी तरह असमर्थ होता है, जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिसकी मारणशक्ति को मन्त्र तथा औषधादि के बल पर प्रक्षीण कर दिया गया हो, मारने का कार्य करने में असमर्थ होता है । निःसत्त्व हुए विषद्रव्य के परमाणुओं को जिस प्रकार विषद्रव्य के ही परमाणु कहा जाता है, उसी प्रकार निःसत्त्व हुए वेदनीयकर्म के परमाणुओं को वेदनीयकर्म के ही परमाणु कहा जाता है । इस दृष्टि से ही आगम में उनके वेदनीयकर्म के परमाणुओं के उदयादिक की व्यवस्था की गई है। उसमें कोई भी बाधा अथवा सैद्धान्तिक कठिनाई नहीं होती और इसलिये प्रोफेसर साहब का यह कहना कि 'क्षुधादि दोषों का अभाव मानने पर केवली में अघातिया कर्मों के भी नाश का प्रसङ्ग आता है', ९२ उसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं है, जिस प्रकार कि धूम के अभाव में अग्नि का भी अभाव बतलाना अथवा किसी औषध प्रयोग में विषद्रव्य की मारणशक्ति के प्रभावहीन हो जाने पर विषद्रव्य के परमाणुओं का ही अभाव प्रतिपादित करना । प्रत्युत इसके, घातिया कर्मों का अभाव होने पर भी यदि वेदनीयकर्म के उदयादिवश केवली में क्षुधादि की वेदनाओं को और उनके निरसनार्थ भोजनादि के ग्रहण की प्रवृत्तियों को माना जाता है, तो उससे कितनी ही दुर्निवार सैद्धान्तिक कठिनाइयाँ एवं बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिनमें से दो-तीन नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं 'क - असातावेदनीय के उदयवश केवली को यदि भूख-प्यास की वेदनाएँ सताती हैं, जो कि संक्लेश परिणाम की अविनाभाविनी हैं ९३ तो केवली में अनन्तसुख का होना बाधित ठहरता है । और उस दुःख को न सह सकने के कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता है, तो अनन्तवीर्य भी बाधित हो जाता है, उसका कोई मूल्य नहीं रहता अथवा वीर्यान्तरायकर्म का अभाव उसके विरुद्ध पड़ता है। "ख – यदि क्षुधादि वेदनाओं के उदय -वश केवली में भोजनादि की इच्छा उत्पन्न होती है, तो केवली के मोहकर्म का अभाव हुआ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इच्छा मोह का परिणाम है और मोह के सद्भाव में केवलित्व भी नहीं बनता। दोनों परस्पर विरुद्ध हैं । ९२. अनेकान्त / वर्ष ७ / किरण ७-८ / पृ. ६२ । ९३. “संकिलेसाविणाभाविणीए भुक्खाए दज्झमाणस्स ।" धवला / ष.खं. /पु १२ / ४,२,७, २६ / पृ. २४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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