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________________ ५६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा | परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो ॥ ६ ॥ निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥ ६ ॥ "इन पद्यों में कुछ नाम तो समान अथवा समानार्थक हैं और कुछ एक-दूसरे से भिन्न हैं, और इससे यह स्पष्ट सूचना मिलती है कि परमात्मा को उपलक्षित करनेवाले नाम तो बहुत हैं, ग्रन्थकारों ने अपनी-अपनी रुचि तथा आवश्यकता अनुसार उन्हें अपने-अपने ग्रन्थ में यथास्थान ग्रहण किया है । समाधितंत्र - ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने, 'तद्वाचिकां नाममालां दर्शयन्नाह' इस प्रस्तावना वाक्य के द्वारा यह सूचित भी किया है कि इस छठे श्लोक में परमात्मा के नाम की वाचिका नाममाला का निदर्शन है । रत्नकरण्ड की टीका में भी प्रभाचन्द्राचार्य ने 'आप्तस्य वाचिकां नाममालां प्ररूपयन्नाह' इस प्रस्तावना - वाक्य के द्वारा यह सूचना की है कि ७ वें पद्य में आप्त की नाममाला का निरूपण है । परन्तु उन्होंने साथ में आप्त का एक विशेषण उक्तदोषैर्विवर्जितस्य भी दिया है, जिसका कारण पूर्व में उत्सन्नदोष की दृष्टि से आप्त के लक्षणात्मक पद्य का होना कहा जा सकता है, अन्यथा वह नाममाला एकमात्र उत्सन्नदोष आप्त की नहीं कही जा सकती, क्योंकि उसमें परं ज्योति और सर्वज्ञ जैसे नाम सर्वज्ञ आप्त के, सार्वः और शास्ता जैसे नाम आगमेशी (परमहितोपदेशक) आप्त के स्पष्ट वाचक भी मौजूद हैं। वास्तव में वह आप्त के तीनों विशेषणों को लक्ष्य में रखकर ही संकलित की गई है, और इसलिये ७ वें पद्य की स्थिति ५वें पद्य के अनन्तर ठीक बैठ जाती है, उसमें असंगति जैसी कोई भी बात नहीं है । ऐसी स्थिति में ७ वें पद्य का नम्बर ६ हो जाता है और तब पाठकों को यह जानकर कुछ आश्चर्य-सा होगा कि इन नाममालावाले पद्यों का तीनों ही ग्रन्थों में छठा नम्बर पड़ता है, जो किसी आकस्मिक अथवा रहस्यमय घटना का ही परिणाम कहा जा सकता है।" (जै. सा. इ.वि.प्र./ खं. १ / पृ. ४३६-४३७)। " इस तरह छठे पद्य के अभाव में जब ७वाँ पद्य असंगत नहीं रहता तब ८वाँ पद्य असंगत हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह ७ वें पद्य में प्रयुक्त हुए विराग और शास्ता जैसे विशेषण- पदों के विरोध की शंका के समाधान रूप में है । Jain Education International " इसके सिवाय, प्रयत्न करने पर भी रत्नकरण्ड की ऐसी कोई प्राचीन प्रतियाँ मुझे अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, जो प्रभाचन्द्र की टीका से पहले की अथवा विक्रम की ११ वीं शताब्दी की या उससे भी पहले की लिखी हुई हों । अनेकवार कोल्हापुर के प्राचीन शास्त्र - भण्डार को टटोलने के लिये डॉ० ए० एन० उपाध्ये जी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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