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________________ अ० १८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५६१ था, जो समस्याएँ आपने उसके बारे में उपस्थित की हैं, वे आपके पत्र को देखने के बाद ही मेरे सामने आई हैं, इसलिये इसके विषय में जितनी गहराई के साथ आप सोच सकते हैं, मैं नहीं, और फिर मुझे इस समय गहराई के साथ निश्चिन्त होकर सोचने का अवकाश नहीं, इसलिये जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, उसमें कितनी दृढ़ता होगी, यह मैं नहीं कह सकता। फिर भी आशा है कि आप मेरे विचारों पर ध्यान देंगे।" "हाँ, इन्हीं विद्वानों में से तीन ने छठे पद्य को संदिग्ध अथवा प्रक्षिप्त करार दिये जाने पर अपनी कुछ शंका अथवा चिन्ता भी व्यक्ति की है, जो इस प्रकार है "(छठे पद्य के संदिग्ध होने पर) ७वें पद्य की संगति आप किस तरह बिठलाएँगे और यदि ७वें की स्थिति संदिग्ध हो जाती है तो ८वाँ पद्य भी अपने आप संदिग्धता की कोटि में पहुँच जाता है।" "यदि पद्य नं० ६ प्रकरण के विरुद्ध है, तो ७ और ८ भी संकट में ग्रस्त हो जायेंगे।" "नं० ६ के पद्य को टिप्पणीकारकृत स्वीकार किया जाय, तो मूलग्रन्थकार द्वारा लक्षण में ३ विशेषण देखकर भी ७-८ में दो का ही समर्थन या स्पष्टीकरण किया गया, पूर्व विशेषण के सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया, यह दोषापत्ति होगी।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१/ पृ.४३४-४३६)। __"इन तीनों आशंकाओं अथवा आपत्तियों का आशय प्रायः एक ही है और वह . यह कि यदि छठे पद्य को असंगत कहा जावेगा तो ७वें तथा ८वें पद्य को भी असंगत कहना होगा। परन्तु बात ऐसी नहीं है। छठा पद्य ग्रन्थ का अंग न रहने पर भी ७ वें तथा ८वें पद्य को असंगत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ७वें पद्य में सर्वज्ञ की, आगमेशी की, अथवा दोनों विशेषणों की व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं है, जैसा कि अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में उसे समझ लिया है। उसमें तो उपलक्षणरूप से आप्त की नाममाला का उल्लेख है, जिसे उपलाल्यते पद के द्वारा स्पष्ट घोषित भी किया गया है, और उसमें आप्त के तीनों ही विशेषणों को लक्ष्य में रखकर नामों का यथावश्यक संकलन किया गया है। इस प्रकार की नाममाला देने की प्राचीन समय में कुछ पद्धति जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द के मोक्खपाहुड में और दूसरा उत्तरवर्ती आचार्य पूज्यपाद ( देवनन्दी) के समाधितंत्र में पाया जाता है। इन दोनों ग्रन्थों में परमात्मा का स्वरूप देने के अनन्तर उसकी नाममाला का जो कुछ उल्लेख किया है, वह ग्रन्थ-क्रम से इस प्रकार है Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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