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________________ ६९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २१ / प्र० १ तं कल्पव्यवहारं च कल्पाकल्पं तथा महाकल्पं च पुण्डरीकं च सुमहापुण्डरीककम् ॥ २ / १०४॥ तथा निषद्यकां प्रायः प्रायश्चित्तोपवर्णनम् । जगत्त्रयगुरुः प्राह प्रतिपाद्यं हितोद्यतः ॥ २ / १०५ ॥ ५. तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ में सम्यक्त्व को देवायु के आस्रव का हेतु नहीं माना गया है, जब कि दिगम्बरमान्य पाठ में माना गया है। 'सम्यक्त्वं च ' (६/२१) सूत्र इसका प्रमाण है । हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में दिगम्बरमान्य पाठ का अनुसरण किया गया है Jain Education International सम्यक्त्वं च व्रतित्वं च बालतापस्ययोगिता । अकामनिर्जरा चास्य दैवस्यास्त्रवहेतवः ॥ ५८ / ११० ॥ यदि हरिवंशपुराणकार यापनीय होते तो, वे उपर्युक्त विषयों का वर्णन श्वेताम्बर - आगमों के आधार पर करते । किन्तु उन्होंने इसके लिए दिगम्बराचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों का अवलम्बन किया है। इससे भी सिद्ध है कि वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं। हरिवंशपुराण में उपलब्ध ये बहुविध यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त इस बात के पक्के सबूत हैं कि वह दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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