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________________ ७४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ दिगम्बरपक्ष यह सत्य है कि स्त्री को तीर्थंकरनामकर्म के बन्ध का उल्लेख दिगम्बरमत के प्रतिकूल है, तथापि इससे बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता, क्योंकि उसमें ऐसे अनेक सिद्धान्त और तथ्य उपलब्ध होते हैं, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं। यथा १. रुक्मिणी को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध निरूपित करते हुए भी, उसकी मुक्ति स्त्रीपर्याय से न बतलाकर पुरुषपर्याय से बतलायी है और भविष्य में उसके तीर्थंकर होने का भी कथन नहीं किया गया है। तथा जैसा कि ऊपर कहा गया है, सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में किसी भी स्त्री की तद्भवमुक्ति का कथन नहीं है। सभी आर्यिकाओं के देवपर्याय प्राप्त करने का अथवा देवपर्याय प्राप्त करने के अनन्तर वहाँ से च्युत होने पर मनुष्यभव में पुरुषशरीर से मोक्षप्राप्ति का कथन है, क्योंकि आर्यिकापद से देवपर्याय प्राप्त करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि होने के कारण स्त्रीशरीर प्राप्त नहीं कर सकता। २. यापनीयमत में मुनि के अचेल और सचेल दो लिंग माने गये हैं, किन्तु सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में एकमात्र दिगम्बरत्व अथवा नग्नता को ही मुनिलिंग कहा गया है। एक भी श्लोक ऐसा नहीं है, जिसमें वस्त्रधारी को मुनि, निर्ग्रन्थ या श्रमण शब्द से अभिहित किया गया हो। ३. गृहत्यागी, कौपीनमात्रधारी ग्यारह श्रावकप्रतिमाओं के पालक पुरुष को क्षुल्लक नाम दिया गया है और उसके प्रति विनय प्रकट करने के लिए मुनिवत् 'नमोऽस्तु' वाक्य का प्रयोग न कर इच्छामि शब्द का प्रयोग किया गया है, तथा कहा गया है २. देखिये, अशोकरोहिणीकथानक का पूर्वोद्धत श्लोक ५८४, लक्ष्मीमतीकथानक के पूर्वोद्धृत श्लोक १२५-१२६ तथा ४६वें 'असत्यभाषणकथानक' का निम्नलिखित श्लोक विमलादिकमत्यन्ताद्यार्यिकाः शुद्धचेतसः। नानातपो विधायोच्चै वयोग्यं दिवं ययुः॥ १८८॥ इस श्लोक में विमला आदि आर्यिकाओं (आर्यिकाः) को स्वर्गगामी कहा गया है, जबकि उन्हीं के साथ मुनिदीक्षा ग्रहण करनेवाले राजा धनद को मोक्ष की प्राप्ति बतलायी गयी ततोऽनेकसमाः कृत्वा नानाविधतपांसि तु। धनदः स मुनिर्विद्वानाध्यासितपरीषहः॥ १८६ ॥ दिव्यनाम-पुरी-पार्श्व-स्थित-गोवर्ज-पर्वते। जगाम निर्वृतिं वीरो गिरीन्द्रस्थितमानसः॥ १८७॥ ३. देखिये, आगे शीर्षक-'सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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