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________________ ५७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ एक विलुप्त अध्याय' नामक निबन्ध में प्रस्तुत करते हुए, यह प्रतिपादन किया था कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्य के उपदेशों के पश्चात् उन्हीं के समर्थन में लिखा गया है, और इसलिए इसके कर्ता वे समन्तभद्र हो सकते हैं, जिनका उल्लेख शिलालेख व पट्टावलियों में कुन्दकुन्द के पश्चात् पाया जाता है। कुन्दकुन्दाचार्य और उमास्वामी का समय वीरनिर्वाण से लगभग ६५० वर्ष पश्चात् (वि० सं० १८०) सिद्ध होता है। फलतः रत्नकरण्डश्रावकाचार और उसके कर्ता समन्तभद्र का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का अन्तिम भाग अथवा तीसरी शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये (यही समय जैन समाज में आमतौर पर माना भी जाता है)।' साथ ही यह भी बतलाया था कि 'रत्नकरण्ड के कर्ता ये समन्तभद्र उन शिवकोटि के गुरु भी हो सकते हैं, जो रत्नमाला के कर्ता हैं।१०३ इस पिछली बात पर आपत्ति करते हुए पं० दरबारीलाल जी ने अनेक युक्तियों के आधार पर जब यह प्रदर्शित किया कि रत्नमाला एक आधुनिक ग्रन्थ है, रत्नकरण्डश्रावकाचार से शताब्दियों बाद की रचना है, विक्रम की ११वीं शताब्दी के पूर्व की तो वह हो नहीं सकती और न रत्नकरण्डश्रावकाचार के कर्ता समन्तभद्र के साक्षात् शिष्य की कृति हो सकती है,०४ तब प्रो० साहब ने उत्तर की धुन में कुछ कल्पित युक्तियों के आधार पर यह तो लिख दिया कि 'रत्नकरण्ड का समय विद्यानन्द के समय (ईसवी सन् ८१६ के लगभग) के पश्चात् और वादिराज के समय अर्थात् शक सं० ९४७ (ई० सन् १०२५) के पूर्व सिद्ध होता है। इस समयावधि के प्रकाश में रत्नकरण्डश्रावकाचार और रत्नमाला का रचनाकाल समीप आ जाते हैं और उनके बीच शताब्दियों का अन्तराल नहीं रहता।" १०५ साथ ही आगे चलकर उसे तीन आपत्तियों का रूप भी दे दिया।०६ परन्तु इस बात को भुला दिया कि उनका यह सब प्रयत्न और कथन उनके पूर्वकथन एवं प्रतिपादन के विरुद्ध जाता है। उन्हें या तो अपने पूर्वकथन को वापिस ले लेना चाहिए था और या उसके विरुद्ध इस नये कथन का प्रयत्न तथा नई आपत्तियों का आयोजन नहीं करना चाहिये था। दोनों परस्पर विरुद्ध बातें एक साथ नहीं चल सकतीं।" "अब यदि प्रोफेसर साहब अपने उस पूर्व कथन को वापिस लेते हैं, तो उनकी वह थियोरी (Theory) अथवा मत-मान्यता ही बिगड़ जाती है, जिसे लेकर वे 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' लिखने में प्रवृत्त हुए हैं और यहाँ तक लिख गये हैं कि 'बोडिक-सङ्घ के संस्थापक शिवभूति, स्थविरावली में उल्लिखित आर्य १०३. जैनइतिहास का एक विलुप्त अध्याय / पृ. १८,२० । १०४. अनेकान्त / वर्ष ६/किरण १२/ पृ. ३८०-३८२। १०५. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ५-६/पृ.५४।। १०६. अनेकान्त/वर्ष ८/किरण ३/ पृ. १३२ तथा वर्ष ९/किरण १/पृ. ९-१०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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