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________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५५९ ग्रंथ का मौलिक अंग होने-न-होने विषयक गम्भीर प्रश्न को लिये हुए है, उद्धृत करते हुए प्रोफेसर साहब ने उसे अपनी 'प्रथम आपत्ति के परिहार का एक विशेष प्रयत्न' बतलाया है, उसमें जो प्रश्न उठाया है उसे 'बहुत ही महत्त्वपूर्ण' तथा रत्नकरण्ड के कर्तृत्वविषय से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला घोषित किया है और तीनों ही पत्रों को अपने लेख में प्रस्तुत करना वर्तमान विषय के निर्णयार्थ अत्यन्त आवश्यक सूचित किया है। साथ ही मुझसे यह जानना चाहा है कि मैंने अपने प्रथम पत्र के उत्तर में प्राप्त विद्वानों के पत्रों आदि के आधार पर उक्त पद्य के विषय में मूल का अंग होने-न-होने की बावत और समूचे ग्रन्थ (रत्नकरण्ड) के कर्तृत्व-विषय में क्या कुछ निर्णय किया है। इसी जिज्ञासा को, जिसका प्रो० सा० के शब्दों में प्रकृतविषय से रुचि रखनेवाले दूसरे हृदयों में भी उत्पन्न होना स्वाभाविक है, प्रधानतः लेकर ही मैं इस लेख के लिखने में प्रवृत्त हो रहा हूँ।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१/ पृ. ४३३)। "सबसे पहले मैं अपने पाठकों को यह बतला देना चाहता हूँ कि प्रस्तुत चर्चा के वादी-प्रतिवादी रूप में स्थित दोनों विद्वानों के लेखों का निमित्त पाकर मेरी प्रवृत्ति रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य पर सविशेषणरूप से विचार करने एवं उसकी स्थिति को जाँचने की ओर हुई और उसके फलस्वरूप ही मुझे वह दृष्टि प्राप्त हुई, जिसे मैंने अपने उस पत्र में व्यक्त किया है, जो कुछ विद्वानों को उनका विचार मालूम करने के लिये भेजा गया था और जिसे प्रोफेसर साहब ने विशेष महत्त्वपूर्ण एवं निर्णयार्थ आवश्यक समझकर अपने वर्तमान लेख में उद्धृत किया है। विद्वानों को उक्त पत्र का भेजा जाना प्रोफेसर साहब की प्रथम आपत्ति के परिहार का कोई खास प्रयत्न नहीं था, जैसा कि प्रो० साहब ने समझा है, बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य अपने लिये इस बात का निर्णय करना था कि समीचीन धर्मशास्त्र में, जो कि प्रकाशन के लिये प्रस्तुत है, उसके प्रति किस प्रकार का व्यवहार किया जाय, उसे मूल का अङ्ग मान लिया जाय या प्रक्षिप्त? क्योंकि रत्नकरण्ड में उत्सन्नदोष आप्त के लक्षणरूप में उसकी स्थिति के स्पष्ट होने पर अथवा प्रकीर्त्यते के स्थान पर प्रदोषमुक् जैसे पाठ का आविर्भाव होने पर मैं आप्तमीमांसा के साथ उसका कोई विरोध नहीं देखता हूँ। और इसीलिये तत्सम्बन्धी अपने निर्णयादि को उस समय पत्रों में प्रकाशित करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई, वह सब समीचीन धर्मशास्त्र की अपनी प्रस्तावना के लिये सुरक्षित रक्खा गया था। हाँ, यह बात दूसरी है कि उक्त 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्य के प्रक्षिप्त होने अथवा मूल ग्रन्थ का वास्तविक अंग सिद्ध न होने पर प्रोफेसर साहब की प्रकृत-चर्चा का मूलाधार ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि रत्नकरण्ड के इस एक पद्य को लेकर ही उन्होंने आप्तमीमांसा-गत दोष-स्वरूप के साथ उसके विरोध की Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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