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________________ ५५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ मिलता कि प्रोफेसर साहब उन विशेष युक्तियों के सम्बन्ध में भी क्या कुछ कहना चाहते हैं। हो सकता है कि प्रो० सा० के सामने उन युक्तियों के सम्बन्ध में अपनी पिछली बातों के पिष्टपेषण के सिवाय अन्य कुछ विशेष एवं समुचित कहने के लिए अवशिष्ट न हो और इसलिए उन्होंने उनके उत्तर में न पड़कर अपनी उन चार आपत्तियों को ही स्थिर घोषित करना उचित समझा हो, जिन्हें उन्होंने अपने पिछले लेख (अनेकान्त वर्ष ८/ किरण ३) के अन्त में अपनी युक्तियों के उपसंहाररूप में प्रकट किया था। और संभवत इसी बात को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने अपने वर्तमान लेख में निम्न वाक्यों का प्रयोग किया हो "इस विषय पर मेरे 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' शीर्षक निबन्ध से लगाकर अभी तक मेरे और पं० दरबारीलाल जी कोठिया के छह लेख प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उपलब्ध साधक-बाधक प्रमाणों का विवेचन किया जा चुका है। अब कोई नई बात सन्मुख आने की अपेक्षा पिष्टपेषण ही अधिक होना प्रारम्भ हो गया है, मौलिकता केवल कटु शब्दों के प्रयोग में शेष रह गई है।" (प्रो० हीरालाल जी जैन के वाक्य)। "(आपत्तियों के पुनरुल्लेखानन्तर) "इस प्रकार रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्तमीमांसा के एककर्तृत्व के विरुद्ध पूर्वोक्त चारों आपत्तियाँ ज्यों की त्यों आज भी खड़ी हैं, और जो कुछ ऊहापोह अब तक हुआ है, उससे वे और भी प्रबल व अकाट्य सिद्ध होती हैं।" (प्रो० हीरालाल जी जैन के वाक्य)। "कुछ भी हो और दूसरे कुछ ही समझते रहें, परन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रो० साहब अपनी उक्त चार आपत्तियों में से किसी का भी अब तक समाधान अथवा समुचित प्रतिवाद हुआ नहीं मानते, बल्कि वर्तमान ऊहापोह के फलस्वरूप उन्हें वे और भी प्रबल एवं अकाट्य समझने लगे हैं। अस्तु। (जै.सा.इ.वि.प्र./ खं.१ / पृ. ४३१४३२)। "अपने वर्तमान लेख में प्रो० साहब ने मेरे दो पत्रों और मुझे भेजे हुए अपने एक पत्र को उद्धृत किया है। इन पत्रों को प्रकाशित देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उनमें से किसी के भी प्रकाशन से मेरे क्रुद्ध होने जैसी तो कोई बात ही नहीं हो सकती थी, जिसकी प्रोफेसर साहब ने अपने लेख में कल्पना की है, क्योंकि उनमें प्राइवेट जैसी कोई बात नहीं है, मैं तो स्वयं ही उन्हें समीचीन धर्मशास्त्र की अपनी प्रस्तावना में प्रकाशित करना चाहता था। चुनाँचे लेख के साथ भेजे हुए पत्र के उत्तर में भी मैंने प्रो० साहब को इस बात की सूचना कर दी थी। मेरे प्रथम पत्र को, जो कि रत्नकरण्ड के 'क्षुत्पिपासा' नामक छठे पद्य के सम्बन्ध में उसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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