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________________ अ०१५ / प्र०१ मूलाचार / २१७ अनुवाद-"देव और नारकियों में अधिक से अधिक चार गुणस्थान हो सकते हैं, तिर्यंचों में पाँच और मनुष्यों में चौदह गुणस्थान संभव हैं।" मूलाचार में जीव के इन चौदह गुणस्थानों का वर्णन ग्रन्थकार की इस मान्यता को सूचित करता है कि मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय का विकास गुणस्थानपरिपाटी से होता है और उसकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। इस पूर्ण अवस्था को प्राप्त रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण है, उससे नीचे के गुणस्थानों का अपूर्ण रत्नत्रय नहीं। यह गुणस्थानानुसार रत्नत्रय के विकास का सिद्धान्त यापनीय-मान्यताओं के अत्यन्त विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत के अनुसार अन्यलिंगी साधु भी मुक्त हो सकता है, जब कि वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही रहता है। स्त्री और गृहस्थ भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, जिनका अधिक से अधिक पाँचवाँ ही गुणस्थान होता है। गुणस्थानानुसार रत्नत्रय के विकास का सिद्धान्त इन सबकी मुक्ति को अमान्य कर देता है। अतः रत्नत्रयविकास के मानदण्डरूप इस गुणस्थानसिद्धान्त को मान्यता देने के कारण सिद्ध होता है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है। सोलह कल्पों की मान्यता श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में कल्प-नामक स्वर्गों की संख्या बारह बतलायी गयी है, जब कि मूलाचार (उत्त.) में सोलह कल्पों का निरूपण है। यथा आईसाणा कप्पा देवा खलु होंति कायपडिचारा। फासप्पडिचारा पुण सणक्कुमारे य माहिंदे॥ ११४१॥ बंभे कप्पे बंभुत्तरे य तह लंतवे य कापिढे। एदेसु य जे देवा बोधव्वा रूवपडिचारा॥ ११४२॥ सुक्कमहासुक्केसु य सदारकप्पे तहा सहस्सारे। कप्पे एदेसु सुरा बोधव्वा सद्दपडिचारा॥ ११४३॥ आणद-पाणदकप्पे आरणकप्पे अच्चुदे य तहा। मणपडिचारा णियमा एदेसु य होति जे देवा॥ ११४४॥ आईसाणा का अर्थ है आ ईशानात् अर्थात् भवनवासियों से लेकर ईशान स्वर्ग तक। इस कथन से सौधर्म स्वर्ग का भी ग्रहण हो जाता है। मूलाचार में यह सोलह स्वर्गों की मान्यता यापनीयों की केवल बारह स्वर्गों की मान्यता के विरुद्ध होने से भी सिद्ध होता है कि यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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