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________________ १२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ इत्थीवि य जं लिंगं दिg उस्सग्गियं व इदरं वा। .. तं तत्थ होदि हु लिंग परित्तमुवधिं करेंतीए॥ ८०॥ भ.आ.। अनुवाद-"स्त्रियों के भी जो औत्सर्गिक और आपवादिक लिंग आगम में कहे गये हैं, वे ही भक्तप्रत्याख्यान के समय में भी उनके लिंग होते हैं। आर्यिकाओं का एक-साड़ीमात्र-अल्पपरिग्रहात्मकलिंग औत्सर्गिक लिंग है और श्राविकाओं का बहुपरिग्रहात्मक लिंग अपवादलिंग है।" इस कथन का समर्थन टीकाकार अपराजित सूरि के निम्नलिखित वचनों से होता है "स्त्रियोऽपि यल्लिङ्गं दृष्टमागमेऽभिहितम् औत्सर्गिकं तपस्विनीनाम् इतरं वा श्राविकाणां तदेव भक्तप्रत्याख्याने भवति। लिङ्गं तपस्विनीनां प्राक्तनम्। इतरासां पुंसामिव योज्यम्। यदि महर्द्धिका, लज्जावती, मिथ्यादृष्टिस्वजना च तस्याः प्राक्तनं लिङ्गं, विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम्। उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति 'परित्तं' अल्पं उपधिं परिग्रहं कुर्वत्याः।" (वि.टी./भ.आ./गा.८०)। अनुवाद-"स्त्रियों के भी जो लिंग आगम में बतलाये गये हैं अर्थात् तपस्विनियों (आर्यिकाओं) का औत्सर्गिक और श्राविकाओं का आपवादिक, वे ही भक्तप्रत्याख्यान में भी होते हैं। तपस्विनियों का लिंग तो पहले धारण किया हुआ (प्राक्तन) अर्थात् औत्सर्गिक (एकवस्त्रात्मक) ही होता है, श्राविकाओं का लिंग पुरुषों के समान समझना चाहिए। अर्थात् श्राविका यदि महासम्पत्तिशाली है या लज्जाशील है अथवा उसके परिवारजन विधर्मी हैं, तो सार्वजनिकस्थान में उसे पूर्वधृत लिंग अर्थात् अपवादलिंग ही दिया जाना चाहिए, किन्तु एकान्त स्थान में सकलपरिग्रहत्यागरूप (एकवस्त्रात्मक) उत्सर्गलिंग दिया जा सकता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि स्त्रियों के लिए सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिंग कैसे संभव है? उत्तर यह है कि परिग्रह को अल्प करने से अर्थात् एकवस्त्रात्मक अल्पपरिग्रह से उत्सर्गलिंग संभव है।" कुछ विद्वानों की धारणा है कि भगवती-आराधना में भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना में संस्तरारूढ़ होने) के समय आर्यिकाओं और श्रावकाओं के लिए मुनि के समान नाग्न्यलिंग ग्रहण करने का विधान किया गया है। किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। इसका निराकरण अन्तिम (तृतीय) प्रकरण में किया जायेगा। शिवार्य द्वारा प्रतिपादित अपवादलिंग की इन परिभाषाओं से सिद्ध है कि उन्होंने श्रावक-श्राविकाओं के सचेललिंग को ही अपवादलिंग शब्द से अभिहित किया है तथा मुनियों के अचेललिंग एवं आर्यिकाओं के एक-वस्त्रात्मक लिंग को उत्सर्गलिंग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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