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अ० १३ / प्र०१
भगवती-आराधना / १३ संज्ञा प्रदान की है। शिवार्य ने आचेलक्य को मुनि का अनिवार्य धर्म बतलाया है और वस्त्रादि-समस्त-परिग्रह-त्याग के बिना संयतगुणस्थान की प्राप्ति का निषेध किया है तथा भगवती-आराधना में कहीं भी मुनि के स्थविरकल्पिक भेद का उल्लेख नहीं किया। ये इस बात के प्रमाण हैं कि उनके सिद्धान्त में स्थविरकल्प के लिए कोई स्थान नहीं है, अतः भगवती-आराधना में उल्लिखित अपवादलिंग का स्थविरकल्पी साधु से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध श्रावक से ही है। १.३. भक्तप्रत्याख्यानकाल में ग्राह्य लिंग का निर्देश
ये उत्सर्ग और अपवाद लिंग विरत (मुनि एवं आर्यिका) और अविरत (श्रावक एवं श्राविका) के नित्यलिंग हैं। किन्तु भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना-मरण) के समय में परिस्थिति अनुकूल होने पर श्रावक-श्राविका को अपना नित्यलिंग छोड़कर मुनि एवं आर्यिका का लिंग ग्राह्य होता है। इसका प्ररूपण शिवार्य ने भगवती-आराधना में किया है। पहले वे निम्नलिखित गाथा में यह बतलाते हैं कि जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, असाध्यरोग, अतिवृद्धावस्था आदि के कारण धर्म का पालन असंभव हो जाय, तब पाप से बचने और धर्म की रक्षा के लिए विरत और अविरत दोनों भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होते हैं
अण्णम्मि चावि एदारिसंमि आगाढकारणे जादे।
अरिहो भत्तपरिणाए होदि विरदो अविरदो वा॥ ७३॥ भ.आ.। अनुवाद-"(पूर्व गाथाओं में वर्णित दुःसाध्य व्याधि, उपसर्ग, अतिवृद्धावस्था आदि के अतिरिक्त) इसी प्रकार के अन्य अपरिहार्य कारण के उपस्थित होने पर विरत (मुनि और आर्यिका) और अविरत (श्रावक एवं श्राविका) भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होते हैं।"
इसके बाद उत्तर गाथाओं में शिवार्य यह निर्देश करते हैं कि भक्तप्रत्याख्यान के योग्य विरत और अविरत को भक्तप्रत्याख्यान के समय किस स्थिति में और कैसे स्थान में कौन सा लिंग ग्रहण करना चाहिये, जैसा कि टीकाकार अपराजित सूरि के द्वारा गाथा के आरम्भ में दी गयी उत्थानिका से ज्ञात होता है"भक्तप्रत्याख्यानार्हस्य तत्प्रत्याख्यानपरिकरभूतलिंङ्गनिरूपणं उत्तरगाथाभिः क्रियते
उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव।
अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंगं॥ ७६॥ भ.आ.। अनुवाद-"भक्तप्रत्याख्यान के योग्य विरत और अविरत के भक्तप्रत्याख्यान के साधनभूत लिंग का निरूपण उत्तरगाथाओं से किया जा रहा है
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