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________________ १४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ "भक्तप्रत्याख्यान के समय उत्सर्गलिंगधारी के लिए तो उत्सर्गलिंग का ही विधान है, अपवादलिंगधारी के लिए भी उत्सर्गलिंग ही प्रशस्त होता है।"१६ जस्स वि अव्वभिचारी दोसो तिहाणिगो विहारम्मि। सो वि हु संथारगदो गेण्हेज्जोस्सुग्गियं लिंगं॥ ७७॥ भ.आ.। अनुवाद-"जिसके लिंग और दोनों अण्डकोष, इन तीन स्थानों में ऐसा दोष है, जिसे औषध आदि से भी दूर नहीं किया जा सकता, उसे भी वसतिका में (सार्वजनिक स्थान में नहीं) संस्तरारूढ़ होने पर औत्सर्गिकलिंग अवश्य ग्रहण करना चाहिए।" आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महड्डिओ हिरिमं। मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं॥ ७८॥ भ.आ.। अनुवाद-"किन्तु जो अपवादलिंगधारी महासम्पत्तिशाली हो अथवा लज्जालु हो या जिसके स्वजन (परिवार के लोग) मिथ्यादृष्टि (विधर्मी) हों, उसे सार्वजनिक स्थान में (भक्तप्रत्याख्यान के समय) अपवादलिंग ही ग्रहण करना चाहिये, भले ही उसका लिंग और दोनों अण्डकोश प्रशस्त हों। १७ आर्यिका और श्राविका के लिए निर्धारित किये गये भक्त-प्रत्याख्यानकालीन लिंगों का निर्देश पूर्व में किया जा चुका है। (देखिये, शीर्षक १.२.४)। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि शिवार्य ने पूर्वोद्धृत ७३वीं गाथा में विरत और अविरत को ही भक्त प्रत्याख्यान के योग्य बतलाया है और तत्पश्चात् उत्तरवर्ती गाथाओं में जो भक्तप्रत्याख्यान के योग्य हैं, उन्हीं के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में ग्रहण करने योग्य उत्सर्ग या अपवादलिंग का निर्देश किया है, इससे एकदम स्पष्ट है कि उत्सर्ग लिंग का सम्बन्ध विरतों (मुनि-आर्यिका) से तथा अपवादलिंग का सम्बन्ध अविरतों (श्रावक-श्राविका) से है। १६. टीकाकार अपराजित सूरि ने 'प्रशस्त' शब्द से प्रशस्त पुरुषचिह्न अर्थ ग्रहण किया है। यथा "जइ पसत्थलिंगं यदि प्रशस्तं शोभनं लिङ्गं मेहनं भवति। चर्मरहितत्वम्, अतिदीर्घत्वं, स्थूलत्वम् असकृदुत्थानशीलतेत्येवमादिदोषरहितं यदि भवेत्। पुंस्त्वलिङ्गता इह गृहीतेति बीजयोरपि लिङ्गशब्देन ग्रहणम्। अतिलम्बमानतादिदोषरहितता प्रशस्ततापि तयोर्गृहीता।" (विजयोदया-टीका/भ.आ./ गा.७६) । अर्थात् यदि पुरुषचिह्न प्रशस्त हो, चर्मरहितत्व आदि दोषों से रहित हो, तो अपवादलिंगधारी को भक्तप्रत्याख्यान के समय (सार्वजनिक स्थान में भी) उत्सर्गलिंग धारण करना चाहिए। १७. “अपवादलिङ्गस्थानां प्रशस्तलिङ्गानां सर्वेषामेव किमौत्सर्गिक-लिङ्गतेत्यस्यामारेकायामाह 'आवसधे वा अप्पाउग्गे' ---।" विजयोदयाटीका/पातनिका/भगवती-आराधना/गा.७८ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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