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________________ ३१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ पृ. ४५)। इस प्रकार 'निमित्तजन्य अवधिज्ञान' शब्द में भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय (तपोनिमित्त) दोनों अवधिज्ञान गर्भित हो जाते हैं। अतः उपर्युक्त नामकरण युक्तिसंगत नहीं है। तथा निमित्त शब्द से 'क्षयोपशम के लिए की गई तपसाधना' यह अर्थ ग्रहण करना भी प्रामाणिक नहीं है। न भाष्यकार ने यह अर्थ किया है, न सिद्धसेनगणी और हरिभद्रसूरि, इन टीकाकारों ने। इन सबने तो निमित्त शब्द से क्षयोपशमरूप निमित्त अर्थ ही प्रतिपादित किया है। अतः 'तपसाधनारूप निमित्त' अर्थ ग्रहण करना अप्रामाणिक है। २.३. 'क्षयोपशमनिमित्तः' रखने का प्रयोजन यद्यपि यह सत्य है कि भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त इन नामों की अपेक्षा भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय नाम दोनों के पारस्परिक भेद को अच्छी तरह स्पष्ट करते हैं, तथापि सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में तथा तत्त्वार्थाधिगमभाष्यं में क्षयोपशमनिमित्त नाम का प्रयोग विशेष प्रयोजन से किया गया है। वह प्रयोजन है भवप्रत्यय में भव के निमित्त की प्रधानता द्योतित करना तथा क्षयोपशमनिमित्त में भव के निमित्त का अभाव दर्शाना। हरिभद्रसूरि इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं "यथोक्तनिमित्तमिति-यथोक्तं निमित्तं यस्य स तथा, भवोऽप्युक्तमेव निमित्तमिति, तद्व्यावृत्यर्थमाह-क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः।" (हारि.वृत्ति/त.सू. / १/२३/पृ.७८-७९)। ___ अनुवाद-"यथोक्तनिमित्त का अर्थ है 'जैसा निमित्त बतलाया गया है, वैसे निमित्तवाला।' इस व्युत्पत्ति के अनुसार भवनिमित्तवाला अवधिज्ञान भी इस दूसरे भेद में गर्भित हो जाता है, क्योंकि भव को भी अवधिज्ञान का निमित्त कहा गया है। अतः उसे अलग करने के लिए 'क्षयोपशमनिमित्तवाला' यह विशेषण प्रयुक्त किया गया है।" पूज्यपाद स्वामी ने भी यही प्रयोजन बतलाया है। वे कहते हैं-"सर्वस्य क्षयोपशमनिमित्तत्वे क्षयोपशमग्रहणं नियमार्थं क्षयोपशम एव निमित्तं न भव इति।" (स. सि./ १/२२)। अर्थात् अवधिज्ञानमात्र क्षयोपशम के निमित्त से होता है, तो भी सूत्र में 'क्षयोपशम' पद का ग्रहण यह नियम करने के लिए किया गया है कि देव-नारकों को छोड़कर शेष जीवों के मात्र क्षयोपशम के निमित्त से होता है, भव के निमित्त से नहीं। इन प्रमाणों से भी सिद्ध है कि 'यथोक्तनिमित्तः' वचन से 'क्षयोपशमनिमित्तः' अर्थ ही अभिप्रेत है, 'आगमोक्त तपरूप निमित्त' अर्थ नहीं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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