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________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ३१ इस तरह ग्रन्थकार ने रागादि के अभाव और विषयोपभोग के अभाव में अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध बतलाया है, जिससे यह सूचित होता है कि यतः केवली भगवान् में रागादिभाव नहीं होते, इसलिए उनमें आहार की इच्छा नहीं होती। इच्छा के अभाव में कवलाहार का प्रश्न नहीं उठता। इस तरह ये केवलिभुक्ति-विरोधी कथन भी भगवतीआराधना को यापनीयमत-विरोधी और दिगम्बरमत-प्रतिपादक सिद्ध करते हैं। परिग्रह की परिभाषा यापनीयमत-विरुद्ध यद्यपि यापनीयमत में मुनि के लिए सामान्यतः नग्न रहने का ही विधान है, तथापि यदि जननेन्द्रिय अशोभन हो, नग्न रहने में लज्जा आती हो, परीषहजय में असमर्थ हो, भगन्दर आदि रोग हो गया हो, तो इन परिस्थितियों में वस्त्रधारण की अनुमति है, और वस्त्रधारण कर लेने पर मोक्ष में कोई बाधा नहीं मानी गयी है।२९ इसके अतिरिक्त स्त्रियों, गृहस्थों तथा अन्यलिंगियों (अन्यमतावलम्बियों) की भी मुक्ति स्वीकार की गई है। इसका तात्पर्य यह है कि यापनीयमत सवस्त्रमुक्ति को संभव मानता है, इसलिए उसकी दृष्टि में बाह्यपरिग्रह परिग्रह नहीं है। वह न केवल अपवादमार्गी (स्थविरकल्पी) मुनि एवं आर्यिका के वस्त्रपात्रादि अल्पपरिग्रह को परिग्रह नहीं मानता, बल्कि गृहस्थों और परलिंगियों के बहुपरिग्रह को भी परिग्रह नहीं मानता, क्योंकि उसके रहते हुए भी उनकी मुक्ति स्वीकार करता है। यापनीयमान्य श्वेताम्बरग्रन्थ 'दशवैकालिकसूत्र' का कथन है कि मनुष्य के पास कितना ही बाह्यपरिग्रह हो, यदि उसमें मूर्छारूप अन्तरंग परिग्रह नहीं है, तो वह अपरिग्रही है। और बाह्यपरिग्रह रहने पर मूर्छारूप अन्तरंगपरिग्रह का होना जरूरी नहीं है।३० किन्तु भगवती-आराधना में बाह्यपरिग्रह और मूर्छादिरूप अन्तरंगपरिग्रह, दोनों को परिग्रह कहा गया है तथा बतलाया गया है कि अन्तरंगपरिग्रह होने पर ही बाह्यपरिग्रह २९. क- "आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया। भिक्षूणां ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति।" विजयोदयाटीका। भगवती-आराधना /गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' ४२३/ पृ.३२४ । ख- पाल्यकीर्ति शाकटायन : स्त्रीनिर्वाणप्रकरण /श्लोक १०-१८। ३०. जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलजट्ठा, धारंति परिहरंति अ॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इय वुत्तं महेसिणा॥ ६/२० ॥ दशवैकालिकसूत्र । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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