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________________ ३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० १ यहाँ 'कांक्षा' शब्द की व्याख्या करते हुए अपराजितसूरि लिखते हैं- "कांक्षा गार्द्धार्यम् आसक्तिः, सा च दर्शनस्य मलम् । यद्येवम् आहारे कांक्षा, स्त्री-वस्त्र-गन्धमाल्यालङ्कारादिषु वाऽसंयतसम्यग्दृष्टेर्विरताविरतस्य वा भवति । यथा प्रमत्तसंयतस्य परीषहाकुलस्य भक्ष्यपानादिषु कांक्षा सम्भवतीति सातिचारदर्शनता स्यात् । तथा भव्यानां मुक्तिसुखकांक्षा अस्त्येव । इत्यत्रोच्यते न कांक्षामात्रमतीचारः किन्तु दर्शनाद् व्रताद् दानाद् देवपूजायास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेदं कुलं रूपं, वित्तं, स्त्रीपुत्रादिकं, शत्रुमर्द्दनं, स्त्रीत्वं, पुंस्त्वं वा सातिशयं स्यादिति कांक्षा इह गृहीता एषा अतिचारो दर्शनस्य । " (वि.टी./ भ.आ./गा.४३/पृ. ८० ) । - अनुवाद - " गृद्धि या आसक्ति का नाम कांक्षा है और वह सम्यग्दर्शन का मल है । प्रश्न – यदि ऐसा है, तो असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत ( श्रावक) को आहार, स्त्री, वस्त्र, एवं गन्ध, माल्य आदि अलंकारों की आकांक्षा होती है तथा परीषह से व्याकुल प्रमत्तसंयत मुनि को आहार - जल की आकांक्षा होती है, वह भी सम्यग्दर्शन का अतीचार कहलायेगी ? और भव्यजीवों को मुक्तिसुख की कांक्षा रहती ही है। समाधान—कांक्षामात्र अतीचार नहीं है, अपितु सम्यग्दर्शन, व्रत, दान, देवपूजा तथा तप से उत्पन्न पुण्य के द्वारा मुझे ऐसा कुल, ऐसा रूप ऐसा धन, ऐसे स्त्रीपुत्रादि प्राप्त हों, शत्रुओं का विनाश हो अथवा सातिशय स्त्रीत्व या पुरुषत्व मिले, ऐसी कांक्षा सम्यग्दर्शन का अतीचार है । " यहाँ टीकाकार अपराजित सूरि ने प्रमत्तसंयत - गुणस्थान तक के जीवों में क्षुधा - तृषापरीषहजन्य आहारजल की कांक्षा का होना बतलाया है, ऊपर के गुणस्थानवर्ती मुनियो में नहीं। इससे स्पष्ट होता है कि ग्रन्थकार और टीकाकार दोनों केवली भगवान् में क्षुधातृषाजन्य परीषहों का होना नहीं मानते, जिससे उनमें आहार की इच्छा और कवलाहारग्रहण का निषेध होता है। इसके अतिरिक्त भगवती - आराधना (गा. २०९४-२११६ / पृ. ८९२ - ८९७) में केवली भगवान् के वर्णनप्रसंग में केवल उनके विहार का वर्णन है, आहार और नीहार का नहीं। तथा सिद्ध भगवान् की विशेषताएँ बतलाते हुए कहा गया है कि चूँकि सिद्धों को क्षुधादि की बाधाएँ नहीं होतीं और विषयोपभोग के कारणभूत रागादिभाव भी समाप्त हो जाते हैं, इसलिए उन्हें विषयों से प्रयोजन नहीं होता Jain Education International विसएहिं से ण कज्जं जं णत्थि छुदादियाओ बाधाओ । उवभोगहेदुगा णत्थि जं रागादिया य For Personal & Private Use Only तस्स ॥ २१४८ ॥ भगवती- -आराधना । www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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