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________________ ३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० १ ग्रहण किया जाता है, अतः जहाँ बाह्यपरिग्रह है वहाँ अन्तरंगपरिग्रह का होना अनिवार्य है । परिग्रहग्रहण देहसुख में राग होने के कारण ही होता है, इसलिए जब तक परिग्रह है, तब तक देहसुख में राग और शरीर में आसक्ति का अस्तित्व सूचित होता है । इतना ही नहीं, बाह्यपरिग्रह के होने पर हिंसारूप असंयम तथा आर्त्तरौद्रध्यान का होना भी अनिवार्य है तथा वस्त्रादिग्रहण से संवर और निर्जरा के परीषहजयरूप साधन (नग्नत्व) का परित्याग हो जाता है, फलस्वरूप देहसुख में राग तथा शरीर में ममत्व के कारण पापकर्मों का आस्रव-बंध होता है । वस्त्रधारण से कामविकार को भी संरक्षण मिलता है। ५. १. बाह्यपरिग्रह भी परिग्रह भगवती आराधना की निम्नलिखित गाथाओं में बाह्य और अन्तरंग दोनों परिग्रहों को परिग्रह कहा गया है और दोनों त्याज्य बतलाये गये हैं सव्वे गंथे तुमं विवज्जेहि । अब्भंतर बाहिर कद - कारिदाणुमोदेहिं काय-मण-वयण- जोगेहिं ॥ ११११ ॥ अनुवाद — " हे क्षपक! तुम कृत, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, काय से सब अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग करो। " मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया चउदस अब्भंतरा गंथा ॥ १११२॥ अनुवाद — “ मिथ्यात्व, तीन प्रकार का वेदजन्य राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चार कषायें, ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं । " Jain Education International बाहिरसंगा खेत्तं वत्थं धण-धण्ण- कुप्प-भंडाणि । दुपय- चउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा ॥ १११३ ॥ अनुवाद – “खेत, मकान, धन, धान्य, वस्त्र ( कुप्य) ३१, वर्तन, द्विपद (दासदासी), चतुष्पद ( गाय-भैंस, हाथी-घोड़े ), पालकी (यान) तथा शयन - आसन आदि दस बाह्य परिग्रह हैं।" जह कुंडओ ण सक्को सोधेदं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स ॥ १११४॥ अनुवाद—“जैसे तुषसहित चावल का तुष दूर किये बिना उसके भीतर के मैल को दूर करना संभव नहीं है, वैसे ही जो बाह्यपरिग्रह से आवृत है, उसके अभ्यन्तर कर्ममल का शोधन शक्य नहीं है। " ३२ ३१. “कुप्यं वस्त्रम्।" विजयोदयाटीका / भ.आ./ गाथा १११३ / पृ.५७१ । ३२. " तुषसहितस्य तन्दुलस्यान्तर्मलं बाह्ये तुषेऽनपनीते यथा शोधयितुमशक्यं तथा बाह्यपरिग्रहमलसंसक्तस्याभ्यन्तरकर्ममलमशक्यं शोधयितुमिति गाथार्थः । " विजयोदयाटीका/भ.आ./गा.१११४ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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