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अ० १३ / प्र०१
भगवती-आराधना / ३३ ५.२. परिग्रहग्रहण देहसुख के लिए
भगवती-आराधना की अधोलिखित गाथा में बतलाया गया है कि वस्त्रादिपरिग्रह का ग्रहण देहसुख के लिए ही किया जाता है
इंदियमयं सरीरं गंथं गेण्हदि य देहसुक्खत्थं।
इंदियसुहाभिलासो गंथग्गहणेण तो सिद्धो॥ ११५७॥ अनुवाद-"शरीर इन्द्रियमय है। इन्द्रियमय शरीर के सुख के लिए (ठंड, धूप आदि के क्लेशोत्पादक स्पर्श से बचने के लिए)३३ ही वस्त्रादि ग्रहण किये जाते हैं। अतः जो वस्त्रग्रहण करता है, उसके भीतर इन्द्रियसुख की आकांक्षा है, यह सिद्ध होता है।"
टीकाकार अपराजित सूरि तो एक कदम आगे जाकर कहते हैं कि वस्त्रालंकार आदि से अपने शरीर को विभूषित कर मनुष्य दूसरे के मन में कामाभिलाष उत्पन्न करता है और उसके अंग-संसर्ग से जनित सुखानुभूति के लिए उसका सेवन करता है।३४
उन्होंने यह भी कहा है कि बाह्य द्रव्य का ग्रहण लोभादिपरिणाम के कारण होता है-"लोभादिपरिणामहेतुकं बाह्यद्रव्यग्रहणम्।"(वि.टी./ भ.आ./गा.१११४)। .. अपराजित सूरि ने इस मनोवैज्ञानिक सत्य का भी उद्घाटन किया है कि जो मुनि वस्त्र से शरीर को आच्छादित कर लेता है, उसके मन की शुद्धि (निर्विकारता) का पता नहीं चलता। किन्तु जो नग्न रहता है, उसके शरीर की निर्विकारता से हृदय की निर्विकारता प्रकट हो जाती है।३५ जैसे सर्यों से भरे जंगल में विद्या, मंत्र आदि से रहित पुरुष अपनी सुरक्षा के लिए दृढ़ता से प्रयत्नशील रहता है, वैसे ही जो नग्न रहता है, वह इन्द्रियों को वश में करने का पूरा प्रयत्न करता है, अन्यथा शरीर में
३३. "परिग्रहं च चेलप्रावरणादिकमिन्द्रियसुखार्थमेव गृह्णाति वातातपाद्यनभिमतस्पर्शनिषेधाय।"
विजयोदयाटीका/भ.आ./ गा.११५७। ३४. “आत्मशरीरे वस्त्रालङ्कारादिभिरलङ्कृते पराभिलाषमुत्पाद्य तदङ्गासङ्गजनितप्रीत्यर्थितया
अभिमतमापादयति।" विजयोदयाटीका / भ.आ./ गा.११५७। ३५. "चेतो विशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायाम्। कौपीनादिना प्रच्छादयतो भावशुद्धिर्न ज्ञायते।
निश्चेलस्य तु निर्विकारदेहतया स्फुटा विरागता।" विजयोदयाटीका /भ.आ./ गा. 'आचेलक्कुदेसिय' ४२३ / पृ.३२२।
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