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अ०१९/प्र०२
रविषेणकृत पद्मपुराण / ६५१ के लिए बालुकाप्रभा-पृथिवी में गये। बलदेव का जीव देव, कृष्ण को अपना परिचय देने के बाद उसे वहाँ से अपने साथ ले जाने का प्रयत्न करता है, परन्तु वह सब विफल होता है। अन्त में कृष्ण का जीव बलदेव से कहता है कि "भाई जाओ, अपने स्वर्ग का फल भोगो, आयुका अन्त होने पर मैं भी मनुष्यपर्याय को प्राप्त होऊँगा, वह मनुष्यपर्याय जो कि मोक्ष का कारण होगी। उस समय हम दोनों तप कर जिनशासन की सेवा से कर्मक्षय के द्वारा मोक्ष प्राप्त करेंगे। परन्तु तुम इतना करना कि भारतवर्ष में हम दोनों पुत्र आदि से संयुक्त तथा महाविभव से सहित दिखाये जावें। लोग हमें देखकर आश्चर्य से चकित हो जावें। तथा घर-घर में शंख, चक्र और गदा हाथ में लिये हुए मेरी प्रतिमा बनायी जाये और मेरी कीर्ति की वृद्धि के लिए हमारे मन्दिरों से भरतक्षेत्र को व्याप्त किया जाये।" बलदेव के जीव ने कृष्ण के वचन स्वीकार कर उनसे कहा कि सम्यग्दर्शन में श्रद्धा रखो। तथा भरतक्षेत्र में आकर कृष्ण के कहे अनुसार विक्रिया से उनका प्रभाव दिखाया और तदनुसार उनकी प्रतिमा और मन्दिर बनवाकर भरतक्षेत्र को व्याप्त किया।
___ "इस प्रकरण में विचारणीय बात यही है कि जिसे तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध है, वह सम्यग्दृष्टि तो रहेगा ही। यह ठीक है कि बालुकाप्रभा में उत्पन्न होते समय उनका सम्यक्त्व छूट गया होगा, परन्तु अपर्याप्तक अवस्था के बाद फिर से उन्हें सम्यग्दर्शन हो गया होगा, यह निश्चित है। सम्यग्दृष्टि जीव ने लोक में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए मिथ्यामूर्ति के निर्माण की प्रेरणा दी और सम्यग्दृष्टि बलराम के जीव देव ने वैसा किया भी। इस प्रकरण की संगति कुछ समझ में नहीं आती।"१६
इस प्रकार हरिवंशपुराण में भी दिगम्बर-परम्परा से मेल न खानेवाली कुछ बातें हैं, फिर भी वह यापनीयग्रन्थ नहीं है, दिगम्बरग्रन्थ ही है, क्योंकि उसमें स्त्रीमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इसी प्रकार रविषेणकृत पद्मपुराण (पद्मचरित) में भी कुछ उल्लेख दिगम्बरमत के प्रतिकूल हैं, तथापि उसमें यापनीयमत की मूलभूत मान्यताओं के विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने से वह यापनीयकृति नहीं है, अपितु दिगम्बरकृति ही है। किसी मनुष्य की नस्ल की पहचान उसकी शारीरिक संरचना से ही होती है, धारण की गई वेशभूषा से नहीं। अतः जैसे कोई भारतीय प्रजाति (नस्ल) का मनुष्य विदेशी वेशभूषा धारण कर लेने से विदेशी नहीं हो जाता, वैसे ही जिस ग्रन्थ की रचना यापनीयमत के आधारभूत सिद्धान्तों के निषेधक दिगम्बरसिद्धान्तों से हुई है, उसमें कुछ दिगम्बर-परम्परा-विरुद्ध बाह्य बातों का समावेश हो जाने से वह यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता। इसलिए रविषेणकृत पद्मपुराण दिगम्बरग्रन्थ ही है, यापनीयग्रन्थ नहीं। १६. वही/ पृ.१८।
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