SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० १४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७९ ३. श्वेताम्बर जिनकल्पिकों का लिंग (वेश) तीर्थंकरों के समान नहीं होता, क्योंकि तीर्थंकर मुखवस्त्रिका और रजोहरण धारण नहीं करते, जब कि वस्त्रपात्रलब्धियुक्त श्वेताम्बर जिनकल्पी भी मुखवस्त्रिका और रजोहरण ग्रहण करते हैं।४ अन्य जिनकल्पियों के पास तो उक्त उपधियों के अतिरिक्त तीन कल्प (ओढ़ने के वस्त्र) और सात पात्रादि, इस प्रकार बारह तक उपधियाँ रहती हैं।१५ दिगम्बरपरम्परा में भी स्थविरकल्प और जिनकल्प माने गये हैं, किन्तु इन दोनों में मुनियों का लिंग तीर्थंकरवत् सर्वथा अचेल होता है। अन्तर केवल यह है कि जिनकल्पी एकादशांगश्रुत को एक अक्षर के समान जानते हैं, पैरों में काँटा लगने अथवा नेत्रों में धूलि जाने पर स्वयं हटाते नहीं है, प्रथमसंहननधारी होते हैं, वर्षा ऋतु में प्राणियों से मार्ग व्याप्त हो जाने पर छह मास तक कायोत्सर्ग करते हुए निराहार रहते हैं तथा 'जिन' के समान एकाकी विहार करते हैं।५६ विजयोदया के उपर्युक्त वचनों में जिनकल्पियों को तीर्थंकरवत् सर्वथा अचेललिंगधारी और उनके समान ही एकल विहार करनेवाला कहा गया है,५७ जो श्वेताम्बर जिनकल्पियों के विरुद्ध है। ४. श्वेताम्बर यथालन्दिक मुनियों में स्थविरकल्पी तो भिक्षापात्रधारी होते ही हैं, जिनकल्पिकों में भी केवल पात्रलब्धियुक्त५८ मुनियों को छोड़कर सभी पात्रधारी होते हैं। श्वेताम्बर परिहारकल्पी साधु तो अपने पात्र में न केवल स्वयं के लिए भिक्षा लाते हैं, अपितु स्थविरों (वृद्धसाधुओं) के अनुरोध करने पर उनके लिए भी लाते हैं। किन्तु विजयोदयाटीका में यथालन्दिक, परिहारसंयत एवं जिनकल्पिक तीनों प्रकार के मुनियों को केवल पाणिपात्रभोजी ही बतलाया गया है। ५४. क- "अर्हतः संयमयोगेषूपकारी वस्त्रपात्रादिर्न भवति, इतरेषां सुधर्मादिसाधूनां भवति, तेन तीर्थकृता सह साम्यं न साधोरिति गाथार्थः।" (प्रव.परी/वृत्ति १/२/१०/पृ.७८) "येन कारणेन तीर्थकृतां वस्त्राद्यनुपयोगः तेन कारणेनार्हन् स्वलिङ्ग-परलिङ्ग-गृहस्थलिङ्गैः रहितः स्यात्। तत्र स्वलिङ्गं रजोहरणादि परलिङ्गमन्यतीर्थिकलिङ्गं पिच्छिकादिकं, ___ गृहस्थलिङ्गं तु प्रतीतमेव। एभिर्विप्रमुक्तस्तीर्थकृद् भवति।" वही १/२/११ / पृ.७८ । ख- "जिनकल्पिकादयस्तु सदैव सचेलका इति दर्शयन्नाह–'जिणकप्पियादओ पुण सोवहओ सव्वकालमेगंतो।" हेमचन्द्रसूरि-वृत्ति/ विशेषावश्यकभाष्य/२५८४/ पृ.५१७। ५५. "एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पिआणं तु।" प्रवचनपरीक्षा/वृत्ति १/२/३१/ पृ.९४ । ५६. वामदेवकृत 'भावसंग्रह'/ श्लोक २६४-२७०। ५७. "जिनाः सर्व एवाचेला भूता भविष्यन्तश्च।---तीर्थकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽप्य चेलास्तच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेलत्वम्।" वि.टी./भ.आ./ 'आचेलक्कु' ४२३/ पृ.३२३ । ५८. जिन्हें ऐसी ऋद्धि प्राप्त हो जाती है कि वे पाणितल में ही भोजन ग्रहण कर सकते हैं, भिक्षा के लिए पात्र की आवश्यकता नहीं होती, उन्हें पात्रलब्धियुक्त कहा गया है। (देखिये, द्वितीय अध्याय / तृतीय प्रकरण/शीर्षक ३.३.१ "जिनकल्पी भी सचेल और अनग्न')। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy