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________________ १८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ ५. विजयोदयावर्णित अथालन्दसंयत एवं जिनकल्पी मुनि एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में सदा विद्यमान रहते हैं, परिहारसंयत साधु भी भरत और ऐरावत क्षेत्रों में, प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में तथा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों कालों में पाये जाते हैं। किन्तु, श्वेताम्बर जिनकल्पी एवं परिहारकल्पी साधुओं का अस्तित्व अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के साथ ही समाप्त हो गया। ५९ ६. विजयोदया में अथालन्दिक, परिहारक तथा जिनकल्पिक, तीनों मुनियों को औत्सर्गिक (नग्न) लिंगधारी कहा गया है, जिससे सूचित होता है कि वे द्रव्यवेद की अपेक्षा पुरुष होते हैं। तथापि अथालन्दिक को पुनः वेद की अपेक्षा पुरुष और नपुंसक तथा परिहारक और जिनकल्पिक को केवल पुरुष कहा गया है। यह इस बात का प्रमाण है कि अपराजितसूरि द्रव्यवेद के साथ भाववेद एवं वेदवैषम्य का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। किन्तु यापनीयमत में वेदवैषम्य मान्य नहीं था। इससे सिद्ध होता है कि उक्त तीनों प्रकार के मुनियों का विजयोदया-वर्णित स्वरूप यापनीयमत के विरुद्ध है। किन्तु वह दिगम्बर जैनमत के प्रतिकूल नहीं, अपितु सर्वथा अनुकूल है। माननीय पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री भी लिखते हैं-"गाथा १५७ की टीका में आलन्दविधि, परिहारसंयम आदि का जो वर्णन किया है, वह अन्यत्र देखने में नहीं आया। उसमें हमें सिद्धान्तविरुद्ध कथन कोई प्रतीत नहीं हुआ। प्रत्युत, उससे परिहारविशुद्धि की महत्ता और दुरूहता का ही बोध हुआ। श्वेताम्बर-आगम के अनुसार तो जम्बूस्वामी के मुक्तिगमन के पश्चात् जिनकल्प का विच्छेद हो गया। किन्तु टीकाकार ने लिखा है कि जिनकल्पी सर्व धर्मक्षेत्रों (कर्मभूमियों) में सर्वदा होते हैं।"(भ.आ./शो.पु./ प्रस्ता ./पृ.३९)। इस प्रकार विजयोदयाटीका में अथालन्दिकादि मुनियों का जो स्वरूप वर्णित किया गया है, वह श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित स्वरूप से सर्वथा विपरीत है और दिगम्बर मुनियों के अनुरूप है। अतः वह श्वेताम्बर-अथालन्दिकादि मुनियों का वर्णन नहीं है, अपितु दिगम्बर-अथालन्दिकादि मुनियों का है। इसलिए सत्य यह है कि उन मुनियों की जिन विशिष्ट विधियों का वर्णन विजयोदयाटीका में किया गया है, वे श्वेताम्बरसाहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। श्वेताम्बर अथालन्दिकादि मुनियों की विधियाँ उनसे भिन्न हैं, यह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है तथा उनका विस्तृत स्वरूप श्वेताम्बरग्रन्थों एवं अभिधानराजेन्द्रकोष से ज्ञात किया जा सकता है। यापनीयपक्षधर विदुषी एवं विद्वान् ५९. मण-परमोहि-पुलाए-आहारग-खवग-उवसमे-कप्पे। संजमतिय-केवलि-सिज्झणा य जंबुम्मि वुच्छिण्णा ॥ २५९३ ॥ विशेषावश्यकभाष्य/ पृ.५१८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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