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________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८१ के द्वारा मात्र नामसाम्य के कारण वे श्वेताम्बर - यथालन्दिक आदि की विधियाँ मान ली गयी हैं, उन्होंने उनके स्वरूपभेद पर दृष्टिपात नहीं किया । अतः उन्होंने अपराजितसूरि को यापनीय-आचार्य सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किया है, वह असत्य है । हेतु के असत्य होने से सिद्ध है कि वे यापनीय आचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। विजहनाविधि भी दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं थी। इसका स्पष्टीकरण भगवतीआराधना नामक १३वें अध्याय में किया जा चुका है। यापनीयपक्ष भिक्षुप्रतिमाएँ दिगम्बरमतानुकूल "विजयोदयाटीका में भिक्षु की ग्यारह प्रतिमाओं का विवरण उपलब्ध होता है । यह विवरण श्वेताम्बर - आगम - साहित्य में तो उपलब्ध होता है, किन्तु दिगम्बरपरम्परा में कहीं भी भिक्षुप्रतिमाओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इससे यही सिद्ध होता है कि अपराजित श्वेताम्बर - आगमों का ही अनुसरण कर रहे हैं। अतः यह भी उनके यापनीय होने का ही एक प्रमाण है ।" (जै. ध. या.स./ पृ. १५९) । दिगम्बरपक्ष भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख भगवती आराधना की निम्नलिखित गाथा में हुआ हैसदि आउगे सदिबले जाओ विविधाओ भिक्खुपडिमाओ । ताओ वि ण बाधते जहाबलं सल्लिहंतस्स ॥ २५१ ॥ "" अनुवाद- ' आयु और बल के होते हुए अपनी शक्ति के अनुसार शरीर को कृश करनेवाले यति की जो विविध भिक्षुप्रतिमाएँ होती हैं, वे भी उसे ज्यादा कष्ट नहीं देतीं। जो शक्ति के बिना शरीर को कृश करता है, उसे प्रारंभ में ही महान् क्लेश होता है, जिससे उसके योग का भंग हो जाता है। " पं० आशाधर जी ने मूलाराधनादर्पण में एक गाथा के द्वारा भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख करते हुए उनका अर्थ इस प्रकार किया है ६०. मायिय दुय तिय चउ पंच मास छम्मास सत्त मासी य । तिण्णेव सत्तराई इंदिय राइपडिमाओ ॥ भगवती-आराधना (फलटण एवं जै. सं. सं. सं. शोलापुर) गा. २५१ की पादटिप्पणी में उद्धृत । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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