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________________ ३७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०२ 'गृद्धपिच्छाचार्य' नाम के साथ 'उमास्वाति' नाम का उल्लेख सर्वप्रथम श्रवणबेलगोल के शक सं० १०३७ (१११५ ई०) के शिलालेख क्रमांक ४७ (१२७) में मिलता है-"अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिञ्छः" (श्लोक ५)। तत्पश्चात् वहीं के शक सं० १०८५ के शिलालेख क्र० ४० (६४), शक सं० १०९९ के शिलालेख क्र. ४२ (६६), शक सं० १०४५ के शिलालेख क्र. ४३ (११७), शक सं. १०६८ के शिलालेख क्र. ५० (१४०), शक सं० १३२० के शिलालेख क्र. १०५ (२५४) तथा शक सं० १३५५ के शिलालेख क्र. १०८ (२५८) में भी उपर्युक्त दोनों नाम उपलब्ध होते हैं। अन्तिम दो शिलालेखों में 'गृद्धपिच्छाचार्य' इस द्वितीय नामवाले उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता भी कहा गया है। (देखिये, जै.शि.सं./मा. च./ भाग १)। मैसूर के नगर ताल्लुके के एक दिगम्बरजैन-शिलालेख (लगभग १५३० ई०) में भी उमास्वाति को श्रुतकेवलिदेशीय विशेषण के साथ तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता कहते हुए नमस्कार किया गया है तत्त्वार्थसूत्रकारमुमास्वातिमुनीश्वरम्। श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम्॥ _ (E C, VIII, Nagar tl., No. 46/ जै.शि.सं./ मा. च./ भा.३ / ले.क्र.६६७ / हुम्मच / पृ.५१८)। श्रवणबेलगोल के शक सं० १०३७ (१११५ ई०) के शिलालेख क्र. ४७ (१२७) के पूर्ववर्ती किसी भी शिलालेख या दिगम्बरजैन-ग्रन्थ में 'उमास्वाति' के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। पं० नाथूराम जी प्रेमी भी अपने अनुसन्धान के द्वारा इसी निष्कर्ष पर पहुंचे थे। श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी के कुछ प्रश्नों के उत्तर में उनके लिए लिखे पत्र में प्रेमी जी लिखते हैं ___ "श्रुतावतार, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि प्राचीन ग्रन्थों में जो प्राचीन आचार्यपरम्परा दी हुई है, उसमें उमास्वाति का बिलकुल उल्लेख नहीं है। श्रुतावतार में कुन्दकुन्द का उल्लेख है और उन्हें एक बड़ा टीकाकार बतलाया है, परन्तु उनके आगे या पीछे उमास्वाति का कोई उल्लेख नहीं है। इन्द्रनन्दी का श्रुतावतार यद्यपि बहुत पुराना नहीं है, फिर भी ऐसा जान पड़ता है कि वह किसी प्राचीन रचना का रूपान्तर है और इस दृष्टि से उसका कथन प्रमाण-कोटि का है। 'दर्शनसार' ९९० संवत् का बनाया हुआ है, उसमें पद्मनन्दी या कुन्दकुन्द का उल्लेख है, परन्तु उमास्वाति का नहीं। जिनसेन के समय राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक बन चुके थे, परन्तु उन्होंने भी बीसों आचार्यों और ग्रन्थकर्ताओं की प्रशंसा के प्रसंग में उमास्वाति का उल्लेख Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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