________________
अ०१६/प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / ३३१ इसके अतिरिक्त विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के बाद हुए तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सटिप्पण प्रति के रचयिता श्री रत्नसिंहसूरि के वचन पूर्व में उद्धृत किये जा चुके हैं, जिनमें उन्होंने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता के लिए ‘स कश्चिद् भाष्यकारो' (वह कोई भाष्यकार) इन शब्दों का प्रयोग कर उसके नाम से अनभिज्ञता प्रकट की है, जिससे स्पष्ट होता है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक रत्नसिंहसूरि जैसे कट्टर श्वेताम्बर मुनि भी तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति को तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का कर्ता नहीं मानते थे। इससे भी स्वोपज्ञता के विषय में गणी जी की संशयापन्न मनोदशा की पुष्टि होती है।
किन्तु सूत्र और भाष्य में जो गम्भीर साम्प्रदायिक भेद एवं अन्तर्विरोध पूर्व में प्रदर्शित किये गये हैं, उनसे स्पष्टतः सिद्ध है कि सूत्र और भाष्य एककर्तृक नहीं है। ४.२. उत्तमपुरुष की क्रिया सूत्रकार-भाष्यकार के एकत्व का प्रमाण नहीं
श्वेताम्बरपक्ष पं० सुखलाल जी संघवी द्वारा प्रदर्शित दूसरा हेतु यह है कि "प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानों पर भाष्य में भी वक्ष्यामि, वक्ष्यामः आदि प्रथम (उत्तम) पुरुष का निर्देश है और इस निर्देश में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार ही बाद में सूत्र में कथन किया गया है।" (त.सू./वि.स. /प्रस्ता. /पृ. १६)। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं।
दिगम्बरपक्ष यह तो व्याख्या की शैली है। व्याख्याकार कहीं उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग कर व्याख्या करता है, जिससे ऐसा लगता है जैसे मूलग्रन्थकार स्वयं अपने कथन की व्याख्या कर रहा हो११७ और कहीं मूलग्रन्थकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया जोड़कर व्याख्या करता है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याख्याकार मूलग्रन्थकार के शब्दों की व्याख्या कर रहा है। प्रथम प्रकार की व्याख्या शैली के उदाहरण अनेक टीकाकारों की टीकाओं में मिलते हैं। यथा
१. "तस्य स्वरूपमनवद्यमुत्तरत्र वक्ष्यामः।" (सर्वार्थसिद्धि / अध्याय १/मंगलाचरण/ पृ. २)= उस मोक्ष का निर्दोष स्वरूप आगे (दसवें अध्याय के द्वितीय सूत्र में) कहेंगे।
११७. देखिए, पं. फूलचन्द्र शास्त्री : सर्वार्थसिद्धि-प्रस्तावना / पृ. ६८ तथा पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री:
जैन साहित्य का इतिहास/ भाग २/ पृ. २४०।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org