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________________ ४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०१ ग्रन्थ को यापनीय-आचार्यकृत बतलाया है, जो सर्वथा मिथ्या है। अन्तिम चार विद्वानों ने प्रेमी जी द्वारा प्रस्तुत हेतुओं को ही पुनरुक्त किया है। डॉ० सागरमल जी ने कुछ नये हेतु भी जोड़े हैं। इन सबको उन्होंने अपने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ में संगृहीत किया है। प्रेमी जी ने भगवती-आराधना को यापनीयमत का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए अपने ग्रन्थ 'जैन साहित्य और इतिहास' (प्रथम संस्करण /पृ.५६-६० तथा द्वितीय संस्करण/ पृ.६८-७३) में निम्नलिखित हेतु प्रस्तुत किये हैं १. शिवार्य तथा उनके गुरुओं के नाम दिगम्बरपट्टावलियों या गुर्वावलियों में नहीं मिलते। २. यापनीय-आचार्य (अपराजित सूरि) द्वारा भगवती-आराधना की टीका की गई है। ३. भगवती-आराधना की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से मिलती ४. यापनीय-आचार्य शाकटायन ने शिवार्य के गुरु सर्वगुप्त का उल्लेख किया 20% ५. शिवार्य ने अपने लिए 'पाणितलभोजी' विशेषण का प्रयोग किया है। ६. श्वेताम्बरसाहित्य में प्रसिद्ध मेतार्य मुनि की कथा भगवती-आराधना में मिलती ७. उसमें क्षपक के लिए चार मुनियों द्वारा आहार लाये जाने का विधान दिगम्बरमत के विरुद्ध है। ८. अवमौदर्य-कष्ट को साम्यभाव से सहन करते हुए भद्रबाहु के समाधिमरण की कथा भगवती-आराधना को छोड़कर दिगम्बरसम्प्रदाय के अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलती। ९. उसमें मुनि के लिए सवस्त्र अपवादलिंग का विधान है। १०. भगवती-आराधना में 'आचार', 'जीतशास्त्र' आदि श्वेताम्बर-ग्रन्थों का उल्लेख ११. भगवती-आराधना में वर्णित मृत मुनि के शवसंस्कार की विजहना-विधि दिगम्बरमत के प्रतिकूल है। ७. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय । पृ. १२०-१३० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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