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________________ चतुर्दश अध्याय अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य __ प्रथम प्रकरण अपराजितसूरि के दिगम्बर होने के प्रमाण पं० नाथूराम जी प्रेमी ने भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजितसूरि को भी यापनीयसंघी माना है। श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने उनका अनुसरण किया है, साथ ही अपराजितसूरि को यापनीय-आचार्य सिद्ध करने के लिए कुछ नये हेतु भी जोड़े हैं। डॉ० सागरमल जी ने इन दोनों के पदचिह्नों पर चलते हुए हेतुओं में कुछ और वृद्धि की है। उन सब का संग्रह उन्होंने अपने ग्रंथ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में किया है। उनमें प्रमुख हेतु यह है कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से उद्धरण देकर मुनि के लिए विशेष परिस्थितियों में अपवादरूप से सचेललिंग का समर्थन किया है, अतः वे यापनीय-परम्परा के हैं। किन्तु इनमें से अनेक हेतु तो असत्य हैं और अनेक हेत्वाभास हैं, अत एव अपराजितसूरि को यापनीय सिद्ध करनेवाला कोई भी हेतु उपलब्ध नहीं हैं। प्रस्तुत किये गये हेतुओं की असत्यता और हेत्वाभासता का प्रदर्शन आगे किया जायेगा। सर्वप्रथम भगवती-आराधना की विजयोदयाटीका में अपराजितसूरि द्वारा प्रतिपादित उन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का वर्णन किया जा रहा है, जिनसे सिद्ध होता है कि टीकाकार यापनीय-परम्परा के नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा के हैं। विजयोदया टीका में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त सवस्त्रमुक्ति का निषेध तीर्थंकरों का अचेललिंग ही मोक्ष का एकमात्र उपाय अपराजितसूरि के निम्नलिखित वचनों से सवस्त्रमुक्ति का निषेध होता है १. "जिनानां प्रतिबिम्बं चेदमचेललिङ्गम्। ते हि मुमुक्षवो मुक्त्युपायज्ञा यद् गृहीतवन्तो लिङ्गं तदेव तदर्थिनां योग्यमित्यभिप्रायः। यो हि यदर्थी विवेकवान् नासौ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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