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अ० १३ / प्र०१
भगवती-आराधना / २३ लिए आवश्यक लिंग का कथन ही नहीं है। किन्तु भगवती-आराधना में उस पर बहुत अधिक जोर दिया गया है और इस विषय में ग्रन्थकार और टीकाकार में एकरूपता है। दोनों ही साधु-आचार के विषय में इतने कट्टर हैं कि दिगम्बर आचार्यों को भी मात करते हैं।" २३
भक्तप्रत्याख्यान के समय जो अपवादलिंगी (गृहस्थ) के लिये भी उत्सर्गलिंग (वस्त्रत्याग) का विधान भगवती-आराधना में किया गया है, उससे भी सिद्ध होता है कि ग्रन्थकार एकमात्र उत्सर्गलिंग को ही मोक्ष का मार्ग मानते हैं।
डॉ० एम० डी० वसन्तराज का भी कथन है कि "मान्य नाथूराम जी प्रेमी ने मूलाराधना (भगवती-आराधना) के कर्ता शिवार्य को भी यापनीयपंथ का कहा है, परन्तु इस ग्रन्थ में केवलिभुक्ति, सचेलमुक्ति, स्त्रीपर्याय में मुक्ति बतानेवाला कोई अंश नहीं है।"२४
विवेचन का सार उपर्युक्त विवेचन का सार यह है कि भगवती-आराधना में-१. मुनि के दस स्थितिकल्पों में आचेलक्य का ही विधान है, सचेलत्व का नहीं, २. वस्त्र पात्रादि समस्त परिग्रह के त्याग से ही जीव का संयत होना बतलाया गया है, ३. मुनि और श्रावक तथा आर्यिका और श्राविका को ही भक्तप्रत्याख्यान का अधिकारी कहा गया है और इनके ही भक्तप्रत्याख्यान-सम्बन्धी लिंगों का वर्णन उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग नाम से किया गया है, ४. मुनि वस्त्रादि-परिग्रह के सम्पर्क से अपवाद (निन्दा) का पात्र बनता है, अतः परिग्रह से युक्त लिंग को अपवादलिंग संज्ञा दी गई है, ५. अपवादलिंगधारियों के साथ जो महांसम्पत्तिशाली आदि विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं, वे श्रावकों के ही धर्म हैं, मुनियों के नहीं, ६. श्राविका के लिंग को भी अपवादलिंग कहा गया है और उसके साथ महासम्पत्तिशाली आदि विशेषण प्रयुक्त हुए है, ७. आचेलक्य को ही गृहस्थभाव से भिन्नता द्योतित करनेवाला धर्म कहा गया है, ८. अपवादलिंगी को वस्त्रत्याग करने पर ही मुक्ति का पात्र बताया गया है, ९. सचेललिंग से मोक्षप्राप्ति का निषेध किया गया है, १०. सम्पूर्ण ग्रन्थ में अचेललिंग को ही मोक्ष का साधक प्ररूपित किया गया है तथा ११. अपराजित सूरि ने अपनी टीका में श्वेताम्बरीय मान्यताओं को आगम, युक्ति एवं मोक्ष के प्रतिकूल बतलाया है।
२३. भगवती-आराधना ( जैनसंस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर )/ प्रस्तावना / पृ.३०-३१ । २४. गुरुपरम्परा से प्राप्त दिगम्बर जैन आगम : एक इतिहास / पृ.६५ ।
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