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२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ है, जिससे उनकी नग्नता दिखाई नहीं देती। तथा जितपरीषह होने से उन्हें शीतादि की बाधाएँ नहीं होतीं।२२ अपराजितसूरि इससे सहमत नहीं हैं। उनका मत है कि मोक्ष का उपाय होने के कारण ही तीर्थंकर वस्त्रसहित समस्त परिग्रह का त्याग करते हैं। अतः अचेलत्व ही मोक्ष का उपाय है।
४. श्वेताम्बरमत में साधुओं का वस्त्रपात्र रखना परिग्रह नहीं माना गया है, क्योंकि वे उक्त मत में संयम के साधन माने गये हैं। अपराजित सूरि को यह मान्य नहीं है। वे उन्हें परिग्रह ही निरूपित करना चाहते हैं। अतः वे बाह्यपरिग्रह को 'क्षेत्र-वास्तु' आदि शब्दों से संकेतित न कर 'वस्त्रपात्रादि' शब्दों से संकेतित करते हैं
"सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो, मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इत्यन्तःसन्तापो निन्दा।" (गा. अववादिय' ८६ / पृ.१२२)।
स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि अन्य श्वेताम्बर-मान्यताओं का खण्डन करनेवाले अपराजित सूरि के वचन यथाप्रसंग आगे उद्धृत किये जायेंगे।
'गंथच्चाओ लाघवं' (८२) इस गाथा की टीका में भी अपराजित सूरि ने 'वसनसहितलिङ्गधारिणो हि' (पृ.११८) इत्यादि वचनों के द्वारा श्वेताम्बर-सचेललिङ्ग के ही दोष उद्घाटित किये हैं और उसे मुक्तिसाधन के अयोग्य ठहराया है। अतः पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उक्त वचनों को, जो भगवती-आराधना में मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग का प्रतिपादक मान लिया है, वह उनकी महाभ्रान्ति है। और उनके अनुयायियों ने जो उनका अनुकरण किया है, वह अन्धानुकरण है।
माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी भगवती-आराधना में मुनि के लिए सचेल-अपवादलिंग के विधान को अस्वीकार किया है। वे जैनसंस्कृति-संरक्षकसंघ, शोलापुर से प्रकाशित 'भगवती-आराधना' की प्रस्तावना में लिखते हैं
"यहाँ यह ध्यान देना चाहिए कि यदि ग्रंथकार और टीकाकार को सवस्त्रमुक्ति अभीष्ट होती, तो वह भक्तप्रत्याख्यान के लिए औत्सर्गिकलिंग आवश्यक नहीं रखते और न टीकाकार उत्सर्ग का अर्थ सकलपरिग्रह का त्याग करते तथा परिग्रह को यतिजनों के अपवाद का कारण होने से अपवादरूप न कहते। और न स्त्रियों से ही अन्तिम समय एकान्त स्थान में परिग्रह का त्याग कराते।
"श्वेताम्बरपरम्परा में जो भक्तप्रत्याख्यान-विषयक मरणसमाधि आदि ग्रन्थ हैं, जिनके साथ इस ग्रन्थ की अनेक गाथाएँ भी मेल खाती हैं, उनमें भक्तप्रत्याख्यान के
२२. प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १/२/३१ / पृ.९२-९३।
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