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________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८७ अतः मूल बात समन्तभद्र के साथ देव विशेषण का पाया जाना है, जिसके उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं और जिनके आधार पर द्वितीय पद्य में प्रयुक्त हुए देव विशेषण अथवा उपपद को समन्तभद्र के साथ संगत कहा जा सकता है। प्रो० साहब वादिराज के इसी उल्लेख को वैसा एक उल्लेख समझ सकते हैं, जिसमें 'देव' शब्द से समन्तभद्र का अभिप्राय प्रगट किया गया है, क्योंकि वादिराज के सामने अनेक प्राचीन उल्लेखों के रूप में समन्तभद्र को भी 'देव' पद के द्वारा उल्लिखित करने के कारण मौजूद थे। इसके सिवाय, प्रो० साहब ने श्लेषार्थ को लिये हुए जो एक पद्य 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या' इत्यादि उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है, उसका अर्थ जब स्वामी समन्तभद्रपरक किया जाता है, तब 'देव' पद स्वामी समन्तभद्र का, अकलङ्कपरक अर्थ करने से अकलंक का और विद्यानन्दपरक अर्थ करने से विद्यानन्द का ही वाचक होता है। इससे समन्तभद्र नाम साथ में न रहते हुए भी समन्तभद्र के लिये 'देव' पद का अलग से प्रयोग अघटित नहीं है, यह प्रो० साहब द्वारा प्रस्तुत किये गये पद्य से भी जाना जाता है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ खं.१/ पृ. ४६४)। "यह भी नहीं कहा जा सकता कि वादिराज 'देव' शब्द को एकान्ततः 'देवनन्दी' का वाचक समझते थे और वैसा समझने के कारण ही उन्होंने उक्त पद्य में देवनन्दी के लिये उसका प्रयोग किया है, क्योंकि वादिराज ने अपने न्याय-विनिश्चय-विवरण में अकलंक के लिये 'देव' पद का बहुत प्रयोग किया है,११७ इतना ही नहीं बल्कि पार्श्वनाथचरित में भी वे 'तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः' इस वाक्य में प्रयुक्त हुए देव पद के द्वारा अकलंक का उल्लेख कर रहे हैं। और जब अकलंक के लिये वे 'देव' पद का उल्लेख कर रहे हैं, तब अकलंक से भी बड़े और उनके भी पूज्यगुरु समन्तभद्र के लिये देव पद का प्रयोग करना कुछ भी अस्वाभाविक अथवा अनहोनी बात नहीं है। इसके सिवाय, उन्होंने न्यायविनिश्चय-विवरण के अन्तिम भाग में पूज्यपाद का देवनन्दी नाम से उल्लेख न करके पूज्यपाद नाम से ही उल्लेख किया है,११८ जिससे मालूम होता है कि यही नाम उनको अधिक इष्ट था। "ऐसी स्थिति में यदि वादिराज का अपने द्वितीय पद्य से देवनन्दि-विषयक अभिप्राय होता, तो वे या तो पूरा देवनन्दी नाम देते या उनके जैनेन्द्र व्याकरण का ११७. जैसा कि नीचे के उदाहरणों से प्रकट है "देवस्तार्किकचक्रचूडामणिभूयात्स वः श्रेयसे।" पृ. ३।। "भूयो भेदनयावगाहगहनं देवस्य यद्वाङ्मयम्।" "तथा च देवस्यान्यत्र वचनं "व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षं स्वत एव नः।" प्रस्ताव १। "देवस्य शासनमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यतः क इव बोद्धमतीव दक्षः।" प्रस्ताव २। ११८. “विद्यानन्दमनन्तवीर्यसुखदं श्रीपूज्यपादं दयापालं सन्मतिसागरं---वन्दे जिनेन्द्रं मुदा।" Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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