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________________ ५८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०४ साथ में स्पष्ट नामोल्लेख करते अथवा इस पद्य को रत्नकरण्ड के उल्लेखवाले पद्य के बाद में रखते, जिससे समन्तभद्र का स्मरणविषयक प्रकरण समाप्त होकर दूसरे प्रकरण का प्रारम्भ समझा जाता। जब ऐसा कुछ भी नहीं है, तब यही कहना ठीक होगा कि इस पद्य में 'देव' विशेषण के द्वारा समन्तभद्र का ही उल्लेख किया गया है। उनका अचिन्त्य महिमा से युक्त होना और उनके द्वारा शब्दों का सिद्ध होना भी कोई असंगत नहीं है। वे पूज्यपाद से भी अधिक महान् थे, अकलंक और विद्यानन्दादिक बड़े-बड़े आचार्यों ने उनकी महानता का खुला गान किया है, उन्हें सर्वपदार्थतत्त्वविषयक स्याद्वाद-तीर्थ को कलिकाल में भी प्रभावित करनेवाला, और वीरशासन की हजारगुणी वृद्धि करनेवाला, जैनशासन का प्रणेता तक लिखा है। उनके असाधारण गुणों के कीर्तनों और महिमाओं के वर्णनों से जैनसाहित्य भरा हुआ है, जिसका कुछ परिचय पाठक सत्साधुस्मरण-मंगलपाठ में दिये हुए समन्तभद्र के स्मरणों पर से सहज में ही प्राप्त कर सकते हैं। समन्तभद्र के एक परिचय-पद्य से मालूम होता है कि वे सिद्धसारस्वत १९ थे, सरस्वती उन्हें सिद्ध थी, वादीभसिंह जैसे आचार्य उन्हें सरस्वती की स्वच्छन्द-विहारभूमि बतलाते हैं और एक दूसरे ग्रन्थकार समन्तभद्र-द्वारा रचे हुए ग्रन्थसमूहरूपी निर्मलकमलसरोवर में, जो भावरूप हंसों से परिपूर्ण है, सरस्वती को क्रीडा करती हुई उल्लेखित करते हैं।१२० इससे समन्तभद्र के द्वारा शब्दों का सिद्ध होना कोई अनोखी बात नहीं कही जा सकती। उनका जिनशतक उनके अपूर्व व्याकरणपाण्डित्य और शब्दों के एकाधिपत्य को सूचित करता है। पूज्यपाद ने तो अपने जैनेन्द्रव्याकरण में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' यह सूत्र (५, ४, १४०) रखकर समन्तभद्र-द्वारा होनेवाली शब्दसिद्धि को स्पष्ट सूचित भी किया है, जिस पर से उनके व्याकरणशास्त्र की भी सूचना मिलती है। और श्री प्रभाचन्दाचार्य ने अपने गद्यकथाकोश में उन्हें तर्कशास्त्र की तरह व्याकरणशास्त्र का भी व्याख्याता (निर्माता)१२१ लिखा है।१२२ इतने पर भी प्रो० साहब का अपने पिछले लेख में यह लिखना कि "उनका बनाया हुआ न तो कोई शब्दशास्त्र उपलब्ध है और न उसके कोई प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख पाये जाते हैं" व्यर्थ की खींचतान के सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता। यदि आज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, तो उसका यह आशय तो नहीं लिया जा सकता ११९. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ३-४/ पृ. २६ । १२०. सत्साधुस्मरणमंगलपाठ / पृ. ३४, ४९ । १२१. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण १०-११/ पृ. ४१९ । १२२. 'जैनग्रन्थावली' में रायल एशियाटिक सोसाइटी की रिपोर्ट के आधार पर समन्तभद्र के एक प्राकृतव्याकरण का नामोल्लेख है और उसे १२०० श्लोकपरिमाण सूचित किया Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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