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________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८९ कि वह कभी था ही नहीं। वादिराज के ही द्वारा पार्श्वनाथचरित में उल्लिखित सन्मतिसूत्र की वह विवृति और विशेषवादी की वह कृति आज कहाँ मिल रही हैं? यदि उनके न मिलने मात्र से वादिराज के उल्लेख-विषय में अन्यथा कल्पना नहीं की जा सकती, तो फिर समन्तभद्र के शब्दशास्त्र के उपलब्ध न होने मात्र से ही वैसी कल्पना क्यों की जाती है? उसमें कुछ भी औचित्य मालूम नहीं होता। अतः वादिराज के उक्त द्वितीय पद्य नं० १८ का यथावस्थित क्रम की दृष्टि से समन्तभद्र-विषयक अर्थ लेने में किसी भी बाधा के लिये कोई स्थान नहीं है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ खं.१ / पृ. ४६४४६७)। "रही तीसरे पद्य की बात, उसमें योगीन्द्रः पद को लेकर जो वाद-विवाद अथवा झमेला खड़ा किया गया है, उसमें कुछ भी सार नहीं है। कोई भी बुद्धिमान् ऐसा नहीं हो सकता, जो समन्तभद्र को योगी अथवा योगीन्द्र मानने के लिये तैयार न हो, . खासकर उस हालत में जब कि वे धर्माचार्य थे, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यरूप पञ्च आचारों का स्वयं आचार करनेवाले और दूसरों को आचारण करानेवाले दीक्षागुरु के रूप में थे, ‘पदर्द्धिक' थे, तप के बल पर चारणऋद्धि को प्राप्त थे और उन्होंने अपने मंत्ररूप बचनबल से शिवपिण्डी में चन्द्रप्रभ की प्रतिमा को बुला लिया था ('स्वमन्त्रवचन-व्याहूतचन्द्रप्रभः')। योगसाधना जैनमुनि का पहला कार्य होता है और इसलिये जैनमुनि को 'योगी' कहना एक सामान्य-सी बात है, फिर धर्माचार्य अथवा दीक्षागुरु मुनीन्द्र का तो योगी अथवा योगीन्द्र होना और भी अवश्यंभावी तथा अनिवार्य हो जाता है। इसी से जिस वीरशासन के स्वामी समन्तभद्र अनन्य उपासक थे, उसका स्वरूप बतलाते हुए, युक्त्यनुशासन (का० ६) में उन्होंने दया, दम और त्याग के साथं समाधि (योगसाधना) को भी उसका प्रधान अंग बतलाया है। तब यह कैसे हो सकता है कि वीरशासन के अनन्य उपासक भी योग-साधना न करते हों और इसलिये योगी न कहे जाते हों? "सबसे पहले सुहृद्वर पं० नाथूराम जी प्रेमी ने इस योगीन्द्रविषयक चर्चा को 'क्या रत्नकरण्ड के कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही हैं?' इस शीर्षक के अपने लेख में उठाया था और यहाँ तक लिख दिया था कि "योगीन्द्र जैसा विशेषण तो उन्हें (समन्तभद्र को) कहीं भी नहीं दिया गया।"१२३ इसके उत्तर में जब मैंने 'स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे' इस शीर्षक का लेख२४ लिखा और उसमें अनेक प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट किया गया कि समन्तभद्र योगीन्द्र थे तथा १२३. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ३-४/पृ. २९,३०। १२४. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ५-६/पृ. ४२,४८। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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