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________________ ५३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०२ ५. आदिपुराणकार जिनसेन ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को अपने से उत्कृष्ट वि निरूपित करते हुए मिथ्यावादियों के मतों का निरसन करनेवाला कहा है । ( वही / पृ. १५८) । ६. वीरसेन स्वामी ने धवला में और उनके शिष्य जिनसेन ने जयधवला में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र को अपना मान्य ग्रन्थ कहा है । ( वही / पृ. १५८) । ७. नियमसार की तात्पर्यवृत्ति में पद्मप्रभमलधारिदेव ने उक्त सिद्धसेन की वन्दना करते हुए उन्हें सिद्धान्त का ज्ञाता और प्रतिपादन - कौशल - रूप उच्चश्री का स्वामी सूचित किया है। इसके अतिरिक्त प्रतापकीर्ति ने आचार्यपूजा के प्रारंभ में दी हुई गुर्वावली में तथा मुनि कनकामर ने करकंडुचरिउ में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की अत्यन्त प्रशंसा की है । ( वही / पृ. १५९)। ८. पद्मपुराणकार दिगम्बराचार्य रविषेण ने सन्मतिसूत्रकार के कर्त्ता सिद्धसेन को इन्द्रगुरु का शिष्य, अर्हन्मुनि का गुरु और रविषेण के गुरु लक्ष्मणसेन का दादागुरु अर्थात् अपना परदादागुरु कहा है । ( वही / पृ. १६२) । ९. दिगम्बर सेनगण की पट्टावली में भी उक्त सिद्धसेन के विषय में उज्जयिनी के महाकाल - मन्दिर में लिंगस्फोटनादि - सम्बन्धी घटना का उल्लेख मिलता है । ( वही/ पृ. १६३) । १०. इन प्रमाणों में एक मैं भी जोड़ देना चाहता हूँ, वह यह कि दिगम्बराचार्य जटासिंहनन्दी ने वरांगचरित में सन्मतिसूत्र की अनेक गाथाओं का संस्कृतरूपान्तरण किया है। (उदाहरणार्थ देखिए, जै. ध. या.स./ पृ. १९०-१९१ )। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को दिगम्बराचार्य सिद्ध करनेवाले ये सभी आधारभूत प्रमाण मुख्तार जी ने प्रस्तुत किये हैं । श्वेताम्बरपक्ष उपर्युक्त ग्रन्थों में से हरिवंशपुराण, पद्मपुराण और वरांगचरित को मुख्तार जी के आलोचक विद्वान् ने यापनीयपरम्परा के खाते में डाल दिया है । अतः वे लिखते हैं कि "रविषेण यापनीय परम्परा के हैं, अतः उनके परदादागुरु के साथ में सिद्धसेन दिवाकर का उल्लेख मानें, तो भी वे यापनीय सिद्ध होंगे, दिगम्बर तो किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होंगे। (जै. ध. या.स./ पृ. २२६) । वे आगे लिखते हैं- "केवल यापनीयग्रन्थों और उनकी टीकाओं में सिद्धसेन का उल्लेख होने से इतना ही सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीयपरम्परा में मान्य रहे हैं।" ( वही / पृ. २२७ )। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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