SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 595
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१८ / प्र० २ दिगम्बरपक्ष सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५३९ उपर्युक्त तीनों ग्रन्थ दिगम्बराचार्यों की कृतियाँ हैं, इसका सप्रमाण प्रतिपादन पद्मपुराण वरांगचरित एवं हरिवंशपुराण नामक उत्तरवर्ती १९वें, २० वें एवं २१वें अध्यायों में द्रष्टव्य है। अतः दिगम्बराचार्य रविषेण के परदादा गुरु के साथ में उल्लेख होने से आचार्य सिद्धसेन दिगम्बराचार्य ही सिद्ध होते हैं, यापनीयाचार्य नहीं । श्वेताम्बरपक्ष उपर्युक्त विद्वान् का कथन है कि पंचम द्वात्रिंशिका के ३६वें पद्य में यशोदा के साथ भगवान् महावीर के विवाह का उल्लेख है, जिससे सिद्ध होता है कि सिद्धसेन श्वेताम्बर थे। (जै. ध. या.स./ पृ. २२८) । दिगम्बरपक्ष माननीय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा सिद्ध किया जा चुका है कि पञ्चम द्वात्रिंशिका में युगपद्वाद का प्रतिपादन है, जो सन्मतिसूत्र के अभेदवाद के विरुद्ध है । अतः वह सन्मतिसूत्रकार दिगम्बर सिद्धसेन की कृति नहीं है। इसलिए उसमें महावीर के विवाह का उल्लेख होने से सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन श्वेताम्बर सिद्ध नहीं होते । श्वेताम्बरपक्ष उक्त विद्वान् ने एक हेतु यह भी प्रस्तुत किया है कि महाराष्ट्रीप्राकृत में केवल श्वेताम्बराचार्यों ने ग्रन्थ लिखे हैं, दिगम्बरों और यापनीयों ने नहीं । अतः महाराष्ट्रीप्राकृत में निबद्ध होना सन्मतिसूत्र के श्वेताम्बरग्रन्थ होने का सबसे बड़ा प्रमाण है । (जै.ध.या.स./ पृ. २२९) । दिगम्बरपक्ष पूर्वप्रतिपादित प्रमाणों से सिद्ध है कि सन्मतिसूत्र दिगम्बरग्रन्थ है, अतः उसके महराष्ट्रीप्राकृत में लिखे जाने से यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि दिगम्बराचार्यों ने भी महाराष्ट्री - प्राकृत का प्रयोग ग्रन्थलेखन में किया है। इस प्रकार सिद्ध है कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार के निर्णयों को असत्य सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सब मिथ्या हैं । अतः मुख्तार जी का यह निर्णय निर्बाध स्थापित होता है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बर थे। Jain Education International ❖❖❖ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy