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________________ अ० १६ / प्र० ५ तत्त्वार्थसूत्र / ४१३ हुई, जो उसकी रचना के पश्चात् एक दो शताब्दियों में ही सचेल - अचेल ऐसे दो भागों में स्पष्टरूप से विभक्त ही गई, जो क्रमशः श्वेताम्बर और यापनीय (बोटिक) के नाम से जानी जाने लगी। जहाँ तक दिगम्बरपरम्परा का प्रश्न है, उन्हें यह ग्रन्थ उत्तरभारत की अचेलपरम्परा, जिसे यापनीय कहा जाता है, से ही प्राप्त हुआ।" (जै. ध.या.स./पृ.२३९-२४०) । "मूर्धन्य विद्वान् पं० सुखलाल जी ने अपने तत्त्वार्थसूत्र की भूमिका में, पं० हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य की सिद्धसेनगणी की टीका के द्वितीय विभाग के प्रारंभ की अँगरेजी भूमिका में, डॉ० सुजिको ओहिरो ने अपने निबन्ध 'तत्त्वार्थसूत्र का मूलपाठ' में इसे श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास किया है। स्थानकवासी आचार्य आत्मराज जी महाराज ने 'तत्त्वार्थसूत्र - जैनागम - समन्वय' में तत्त्वार्थ के पाठों का आगमिक आधार प्रस्तुत करते हुए इसे श्वेताम्बरपरम्परा की ही कृति माना है। श्वेताम्बर - मूर्तिपूजक - परम्परा के सागरानन्द सूरीश्वर जी ने तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता श्वेताम्बर हैं और सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ संशोधित है, यह सिद्ध करने के लिए ९६ पृष्ठों की एक पुस्तक ( तत्त्वार्थकर्तृतन्मतनिर्णय) ही लिख डाली है । यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्वानों का यह आग्रह उचित नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र और उसके लेखक उस मूलधारा के हैं, जिससे इन विभिन्न परम्पराओं का विकास हुआ है।" (जै. ध. या.स./पृ.२६२-२६३)। उनकी (उमास्वाति की ) यह उच्चनागरी शाखा न तो श्वेताम्बर है और न यापनीय, अपितु दोनों की ही पूर्वज है। अतः उमास्वाति श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वपुरुष हैं। पुनः उमास्वाति उस काल में हुए हैं, जब कि निर्ग्रन्थसंघ में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे भेद अस्तित्व में नहीं आये थे ।" (जै. ध. या. स./पृ.३५५-३५६ ) । 44 २ उमास्वाति को उक्त सम्प्रदाय का आचार्य मानने के हेतु उपर्युक्त कथनों में डॉ० सागरमल जी ने उमास्वाति को दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों से पूर्ववर्ती माने गये स्वकल्पित उत्तरभारतीय- सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का आचार्य बतलाया है। इसके कारण बतलाते हुए वे लिखते हैं १. " काल की दृष्टि से उमास्वाति ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी के पश्चात् और चतुर्थ शताब्दी के पूर्व हुए हैं। प्रो० ढाकी के द्वारा उनका काल ईस्वी सन् ३७५४०० माना गया है। उनके इस काल के आधार पर उन्हें न तो श्वेताम्बर, न दिगम्बर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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